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समझना चाहिये । नय यदि सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और यदि केवल एक ही नय को पकड़े हुए हैं वे नयाभासी हैं और जो दोनों निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं । नय अपने विपक्ष की अपेक्षा रखते हैं, नयों के सहारे चलते हैं वे अनेकांती हैं। जब तक नींव में दोनों इसलिये वे सापेक्ष हैं और सुनय हैं । इसके विपरीत दुर्नय है । सुनय नयों को न अपनाया जावे तब तक आत्म-कल्याण की बात तो बहुत से ही नियमपूर्वक सफल वस्तुओं की सिद्धि होती है और दुर्नय से दूर रही व्यवहार शुद्धि भी नहीं हो सकती । जिस प्रकार एक नहीं होती।
हाथ व एक पैर से (बगैर दोनों पैरों के, हाथों के, आंखों के) परमागमस्यबीजं, निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
जीवन अपूर्ण रहता है। असहाय परमुखापेक्षी रहता है, उसी प्रकार सकलनय विलसितानां विरोधधनं नमाम्यने कान्ताम् ।।
एक नयावलम्बी का जीवन समझना चाहिये।
--पुरुषार्थसिद्ध्युपाय काय की सिद्धि में उपादान और निमित्त दोनों ही कारण माने आचार्य अमृतचन्द्र ने यहाँ अनेकान्त को नमस्कार किया है। गये हैं । यहां केवल उपादान को ही सब कुछ मानना और निमित्त अनेकान्त कैसा है ? इसके विशेषण भिन्न हैं:
को कुछ भी न मानना या दबी जबान से यत्किंचित् मानना यह १. अनेकान्त परमागम का (जैन सिद्धान्त) बीज है ।
तो कोई सिद्धान्त की बात नहीं मानी जा सकती। मिट्टी का पिण्ड २. जन्मांध पुरुषों के हस्ती संबंधी ज्ञान का विरोधक है।
स्वयं अपनी योग्यता के कारण या उपादान के कारण वह घटरूप
परिणमित होता है, यह सत्य है । लेकिन मिट्टी के पिण्ड को जब ३. समस्त नयों के विलास के विलय के विरोध को दूर करने
तक कुम्भकार चक्र दण्ड चीवर आदि का निमित्त न मिले तब तक वाला है।
बह मृत्तिका पिण्ड त्रिकाल भी घट रूप में परिणमित नहीं हो निरपेक्ष नया मिथ्या, सापेक्षावस्तुतेऽर्थकृत् ।।१०२॥
सकता। -आप्तमीमांसा
इसका अर्थ है कि उपादान भी निमित्त की अपेक्षा रखता है, निरपेक्ष नय मिथ्या है, साक्षेप नय सत्य है । सार्थक है
बगैर निमित्त के उपादान अधूरा है, लंगड़ा है, पंगु है। आत्मा अपने दुर्नयंकान्तमारूढा भावनां स्वाथिका हिते।
ही उपादान के कारण मुक्ति प्राप्त करती है, पर निर्ग्रन्थता उत्तम स्वाथिकाश्च विपर्यस्ता सकलंका नयामतः ।।८।।
ध्यान, उत्तम ध्यान में निमित्त उत्तम संहनन, तपस्या आदि का
--आलापपद्धति निमित्त न मिले तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । मुक्ति इतनी स्याद्वाद-प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है किन्तु अनेक धर्मों सस्ती नहीं जो बिना त्याग तपस्या के घर बैठे ही प्राप्त हो जाये का कथन एक साथ करना असंभव है क्योंकि वाणी क्रमशः ही ऐसा होता या केवल उपादान से ही निमित्त के बिना मुक्ति प्राप्त विवेचन कर सकती है । जिस समय वस्तु के जिस विपक्षित धर्म का होती तो इस पंचमकाल में भी इस भूमि से (भरत क्षेत्र संबंधी कथन हो रहा है, उस समय वस्तु के जिस अविक्षित धर्मों का आर्यखण्ड) मुक्ति प्राप्त हो जाती। अभाव नहीं रहता, अपितु गौण रहते हैं। किसी अपेक्षा से कहा
निमित्त उपादान, निश्चय व्यवहार आदि को स्याद्वाद के जा रहा है । इसीलिये "स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता आधार पर और अनेकान्त के आधार पर समझ कर, आत्म कल्याण है । स्यात् पद से सर्वथा एकान्त का निषेध होता है और जो आगम
की ओर जन जागृति हो, यही कामना है। स्यात् पद से अंकित है, ऐसा आगम जैनागम ही हो सकता है। जो
हम और हथकड़ी हम सोचते हैं, कि
पुजों पर हाथघड़ी को हमने
और कलाई पर अपनी
काश ! हम देख पाते कलाई में कैद कर रखा है,
अपनी हथेलियों को भी वस्तुतः
और समझ पाते उसने ही हमें
उन कर्मों को अपने बन्धन में बांध रखा है,
जिन्हें ये हथेलियां करती हैं। मिनट दर मिनट
तो कदाचित हम देखते हैं उसे
हम समझ पाते और भागते हैं
कि हम क्या हैं ? मशीन के पुरजे की तरह ।
कौन कैद है और नजर अटकी रहती है
कौन आजाद है ? मान उसके कांटों पर, बापूलाल सकलेचा
राजेन्द्र-ज्योति ३८
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