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विश्व में दो वृत्तियाँ सबल रूप से पाई जाती हैं। समस्त प्राणियों में अधिकांश रूप से दोनों के दर्शन होते हैं। पहली है। देवी - वृत्ति, दूसरी है आसुरी वृत्ति । एक है शान्तिमूलक जबकि दूसरी अशान्तिमूलक । इन दोनों में द्वन्द्व है । अनादि काल से दोनों में संघर्ष भी पाया जाता है। ये वृत्तियाँ नित्य नयापन धारण करके अभिनय करती हैं। इन्हीं अन् तियों से आत्मा देवता एवं दानवत्व की भूमिका को प्राप्त करती है । शास्ता भगवान् महावीर के शब्दों में कहें तो परिग्रह वृत्ति एवं अपरिग्रह वृत्ति सभी के अन्तर्मन में काम करती है। परिग्रहवृत्ति इन्सान को शैतान तथा हैबान बनाती है। वर्ग संघर्ष एवं राष्ट्र द्वन्द्व की निर्माता भी यही है विश्वमंत्री, सहअस्तित्व, भाईचारा आदि की जननी अपरिग्रहवृत्ति ही रही है। समत्व का प्रेरक अपरिग्रह है । विषमता को फैलाने वाला परिग्रह है ।
अपरिग्रह : एक अनुचिन्तन
आचार्य आनन्द ऋषिजी महाराज साहब
जैन दर्शन के मौलिक मूलभूत सिद्धान्तों में अपरिग्रहवाद भी एक मौलिक सिद्धान्त माना गया है । इसकी मौलिकता एवं उपादेयता स्वतः सिद्ध है। वर्तमान में लोक जीवन अत्यन्त अस्तव्यस्त हो गया है । इस अस्तव्यस्तता एवं वर्गसंघर्ष को समाप्त करने में अपरिग्रहवाद पूर्णतया समर्थ है । अपरिग्रह के चिन्तन के पहले परिग्रह को समझना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
परिग्रह क्या है
परिग्रह अपने आप में क्या है ? यह एक शाश्वत प्रश्न सभी के सामने उपस्थित है । परिग्रह के प्रश्न को समझे बिना परिग्रह का निराकरण हो नहीं सकता । परिग्रह एक पारिभाषिक शब्द है । आगमों में इसका स्थान-स्थान पर पर्याप्त वर्णन मिलता है। परिग्रह की परिभाषा देते हुये कहा है---
"परिशमनान्तात्मानं गुह्यति इति परिग्रहः । "
बी. नि. सं. २५०३
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अर्थात् जिससे आत्मा सब प्रकार के बन्धन में पड़े वह परिग्रह है । परिग्रह का अर्थ जीवन निर्वाह से सम्बन्धित अनावश्यक पदार्थों का संग्रह है । धन, संपत्ति, भोग सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्वमुलक संग्रह ही परिग्रह है "होम" की वृत्ति आपत्तियों को आमंत्रित करती है । परिग्रहीवृत्ति के धारक व्यक्ति समाजद्रोही, देशद्रोही, मानवताद्रोही ही नहीं अपितु आत्मद्रोही भी हैं। जीवन को भयाक्रान्त करने वाली सारी समस्याओं की जड़ परिग्रह है । समाज में भेदभाव की दीवार खड़ी कर विषमता लाने वाली एक मात्र परिग्रहवृत्ति ही है। देश में समस्या अमीर गरीब की नहीं, अर्थ संग्रह की है। अर्थ को साध्य मानकर युद्ध हुए । पारिवारिक संघर्ष वैयक्तिक, वैमनस्य एवं तनाव इन सबके मूल में रही है अर्थ संग्रह की भावना । अंग्रेजी नाटककार शेक्सपीयर ने कहा था कि:
अर्थात् संसार में सब प्रकार के विधावत पदार्थों में अर्थ संग्रह भयंकर विष है। मानव आत्मा के लिये अद्वैत दर्शन के प्रणेता शंकराचार्य ने ठीक ही कहा है कि "अर्थमनर्थं भावय नित्यम्"-अर्थ समुच ही अनर्थ है। शास्त्रकारों ने अर्थ के इतने अर्थ बतलाए फिर भी इस अर्थ प्रधान युग में अर्थ को ( पैसों को ) प्राण समझा जा रहा है। संग्रहरी, संचयवृत्ति या पूँजीवाद सब पापों के जनक है। इसकी शाखाएँ- प्रशाखाएं ईर्ष्या, द्वेष, कलह, असंयम आदि अनेक रूपों में विभक्त हैं, फैली हैं । जहाँ परिग्रह वृत्ति का बोलबाला रहता है वहाँ मनुष्य अनेक शंकाओं से और भयों से आक्रान्त रहता है । अनेक चिंता चक्रों में फँसा रहता है । परिग्रह वृत्ति जीवन के लिये एक अभिशाप है । जहाँ भी यह वृत्ति अधिक होती है वहाँ जनता का जीवन अशांत हो जाता है । अनावश्यक खर्च, झूठी शान, पैसे का अपव्यय, दिखावा आदि बातों के परिवेश में ही परिग्रह वृति विशेष रूप से पनपती है। जैनागम में स्थान-स्थान पर परिग्रह को बहुत निद्य एवं आपात रमणीय
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