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आध्यात्मिक विकास के सोपान
भूमिका
अनादिकाल से वासनाजन्य संसार में कर्म बंधनों से आबद्ध चेतन प्रतिसमय कर्मजन्य विभावदशा द्वारा आरोह अवरोह के झुला में झूलता रहता है। कभी वह उन्नत दशा में रहता है, कभी अवनत दशा में रहता है। अतः चेतन का विकास पतन के नापक (बैरोमीटर) रूप गुणस्थान जैन शास्त्रों में गंभीरता के साथ शास्त्रीय विषय का मुख्य स्थान प्राप्त कर चुके हैं ।
यतीन्द्रविजयजी
पूर्व महर्षियों ने इन गुणस्थानों का स्वरूप, लक्षण एवं विस्तार के कई पांडित्यपूर्ण अन्य निर्माण करके तत्व जिज्ञासु महानुभावों की जिज्ञासा तृप्त करने हेतु भगीरथ पुरुषार्थ किया है। तदनुसार मैं भी यत्किंचित् रूप से गुणस्थान के स्वरूप द्वारा आध्यात्मिक विकास की मुख्य भूमिका इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं ।
न्याय, व्याकरण - काव्यतीर्थं साहित्यशास्त्री
चेतन का विकासक्रम
शरीर के अंगोपांग का विकास शारीरिक विकास कहा गया है । मन से संबंधित विकास मानसिक विकास माना गया है इसी प्रकार चेतन के मूलभूत गुण का विकास आध्यात्मिक विकास से संबोधित किया है ।
ऋतु में शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा का क्रम होता है । काल में भूत, भविष्य, वर्तमान का क्रम होता है । लोक में स्वर्ग, मृत्यु, पाताल का क्रम होता है ।
शरीरधारी प्राणियों की अवस्था में बाल, युवा, वृद्ध का क्रम होता है ।
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वैसे ही चेतन के विकासक्रम में बाह्यात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा का विकास क्रम निर्देशित है, जैन दर्शन में यही विकास
क्रम के अन्तर्गत चौदह गुणस्थान की चर्चा की गई है। इन चौदह गुणस्थानों के माध्यम से ही चेतन का विकास क्रम परि लक्षित होता है, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में बाह्यात्मा, चौबे से बारहवें गुणस्थान में अंतरात्मा एवं तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में परमात्मा का स्थान निश्चित किया है। गुणस्थान की परिभाषा
चेतन के गुण या शक्ति का साक्षात्कार जिन स्थानों में किया जाय अर्थात् कि आत्मशक्ति या विकास की भूमिका जो बतला दे उनको गुणस्थान कहते हैं।
अनंत गुणों को प्रकर्ष, अपकर्ष की तरतमता को ध्यान में लेवें तो अनंत गुणस्थान हो जाय किन्तु जिज्ञासु सरलता से आत्मविकास की भूमिका को जान सके इसलिये गुणस्थान की संख्या चौदह निर्धारित की है।
गुणस्थान के नाम
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
(२) सास्वादन गुणस्थान
(३) सम्पक मिध्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान
(४) अविरत सम्पदृष्टि गुणस्थान
(५) विरताविरत ( देशविरती ) गुणस्थान
(६) प्रमत्त गुणस्थान
(७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान (८) निवृत्ति गुणस्थान ( ९ ) अनिवृत्ति गुणस्थान (१०) सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान (११) उपशांत मोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान
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राजेन्द्र- ज्योति
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