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कवित्त, दोहा और चौपाई के रूप में की गई है। यह ग्रंथ वस्तुतः कोई मौलिक कृति न होकर आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'शार्ङ्गधर संहिता' का हिन्दी पद्यानुवाद है । अतः यह एक अनुवाद रचना है । किन्तु पद्यमय शैली में विरचित होने के कारण भाषा की दृष्टि से तो इसकी मौलिकता है ही। यह सम्पूर्ण ग्रंथ तीन खण्डों में विभक्त है और प्रत्येक खण्ड में क्रमश: ७, १३ और १३ अध्याय हैं । इन तीनों खण्डों में कुल मिलाकर २५३५ गाथाएं (कवित्त, दोहा, चौपाई) है । ग्रंथ की भाषा सरल और सुबोध है।
इस ग्रंथ की रचना संवत १७२६ में वैसाख सुदी १५ को मरोटकोट नामक स्थान में की गई थी जो समय औरंगजेब के राज्य में विद्यमान था। ५. काल ज्ञान
यह ग्रंथ भी एक अनुवाद रचना है जो वैद्य शम्भुनाथ कृत ग्रंथ का पद्यानुवाद है। इस ग्रंथ की रचना ७१८ पद्यों में की गई है जिसमें दोहे, चौपाई, सोरठा आदि हैं। इसके रचयिता कविवर लक्ष्मी वल्लभ हैं जो खरतरगच्छ की अठारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वानों में हैं । इनके द्वारा रचित संस्कृत के कल्पसूत्र व उत्तराध्ययन सूत्र की . टीका इनकी विद्वत्ता की द्योतक है। संस्कृत भाषा में आपका पाण्डित्य होने के कारण ही आप इस प्रकार के महत्वपूर्ण ग्रंथों की टीका करने में समर्थ हो सके हैं । इसके अतिरिक्त आपने हिन्दी व मारवाड़ी-राजस्थानी भाषा में कई रास आदि की भी रचना की है, जिसकी प्रतियां बीकानेर के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं।
आपके द्वारा रचित 'कालज्ञान' नामक ग्रंथ यद्यपि एक अनुवाद रचना है, तथापि वैद्यक विषय सम्बन्धी आपके गम्भीर ज्ञान की झलक सहज ही मिल जाती है। इस ग्रंथ की भाषा शैली सुललित एवं प्रवाहमय है। इसका रचना काल सं. १७४१ है । ६. कवि प्रमोद
हिन्दी पद्यानुवाद रचनाओं में इस ग्रंथ का महत्वपूर्ण स्थान है। आकार और पद्य संख्या की दृष्टि से जैन विद्वानों द्वारा रचित पद्य मय ग्रंथों में यह सब से बड़ी रचना है । इस ग्रंथ में २९४४ पद्य हैं जो कवित्त, चौपाई, दोहा आदि के रूप में निबद्ध हैं। इसकी प्रतियां पंजाब के नकोदर भण्डार में (क्रम संख्या ४४३) पाटण व बीकानेर के जैन ज्ञान भण्डारों में भी उपलब्ध है। इस ग्रंथ की रचना संवत् १७५३में लाहौर में की गई थी। यह रचना प्रशस्त एवं उत्कृष्ट कोटि 'की है। इसकी भाषा सरल एवं सुबोध है । इस ग्रंथ के अध्ययन से लेखक की विद्वत्ता का आभास तो मिलता ही है, आयुर्वेद के उनके गहन अध्ययन का भी आभास मिलता है। ___ इस ग्रंथ के रचयिता कवि मान हैं जो खरतरगच्छीय सुमति मेर विनय मेर के शिष्य थे। आप मूलत: बीकानेर के निवासी
में रचित है। आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों का ही इसमें प्रतिपादन है। यह ग्रंथ भी कवित्त, चौपाई, दोहा आदि में रचित है तथा रचना प्रशस्त है। ८. रस मंजरी _यह ग्रंथ पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं होता है । फुटकर रूप से कई अंतपल बीकानेर के महिमा भक्ति-ज्ञान भण्डार (नं. ८७) में हैं
और केवल कुछ अंतपल ही बीकानेर में श्री अगरचन्दजी नाहटा के निजी संग्रह में हैं। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इस रसमंजरी ग्रंथ के रचयिता खरतरगच्छीय मतिरत्न के शिष्य 'समरथ' हैं। इस ग्रंथ का रचनाकाल सम्बत् १७६४ है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना चौपाई छन्दों में की गई है। इसकी भाषा सरल और सुबोध है। ९. मेघ विनोद
यह ग्रंथ आयुर्वेद की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। यह एक चिकित्सा प्रधान ग्रंथ है और इसमें विभिन्न रोगों के लिए अनेक योगों का उल्लेख किया गया है । इसमें चिकित्सीय योगों का संकलन होने से यह ग्रंथ चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस ग्रंथ की एक मूल प्रति 'मोतीलाल बनारसीदास' प्रकाशन संस्था के मालिक श्री सुन्दरलालजी जैन के पास गुरुमुखी लिपि (पंजाबी भाषा) में थी, जिसका उन्होंने हिन्दी में अनुवाद कराकर अपने यहां से ही प्रकाशन कराया है। इस प्रकार अनूदित होकर यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। इसका अनुवाद गद्य शैली में ही हुआ है । इस ग्रंथ की रचना का समय फाल्गुन सुदी १३, सम्वत् १८३५ है।
इस ग्रंथ के रचयिता कविवर मुनि मेघविजय हैं जो यति थे और हिन्दी के बहुत अच्छे कवि थे। इनका उपाश्रय फगवाड़ा नगर में था। इस ग्रंथ की रचना का स्थान फुगुआगर है जो फगवाड़ा के अन्तर्गत ही था। फगवाड़ा नगर तत्कालीन कपूरथला स्टेट के अन्तर्गत आता था।
- मुनि मेघराज कृत तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं-- १. दानशील तपभाव (भण्डार नं. ६८८, संवत् १८७६), २. मेघमाला (सं. १८१७) और ३. मेघ विनोद । मेघमाला में कवि की गुरु परम्परा का उल्लेख मिलता है, जो निम्न प्रकार है-उत्तरगच्छ (जो कि लोकागच्छ की शाखा थी और उत्तर प्रान्त में जाने के कारण आंघगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई) के श्री जटमल के शिष्य परमानन्द थे। परमानन्द के शिष्य श्री सदानन्द हुए। सदानन्द के शिष्य श्री नारायण, नारायण के शिष्य श्री नरोत्तम, नरोत्तम के शिष्य श्री मायाराम और उनके शिष्य श्री मेघमुनि थे।
गत दिनों "आत्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रंथ" प्रकाशित हुआ था। उसके हिन्दी खण्ड में पृष्ठ १५७ पर स्व.डा. बनारसीदास जैन का "पंजाब के जैन भण्डारों का महत्व” शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में कलिकी गुरु परम्परा तथा अन्य कृतियों का जो उल्लेख किया गया है उसके अन्तर्गत मेघमुनि और उनकी उक्त कृतियों का भी उल्लेख है।
(शेष पृष्ठ १८३ पर)
इस ग्रंथ की रचना भी कविवर मान द्वारा ही की गई थी। इसका रचनाकाल १७४१ है। यह ग्रंथ भी सरल और सुबोध भाषा
वो. नि. सं. २५०३
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