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मुनिश्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' की साहित्य-साधना
डॉ. नेमीचन्द जैन
अब तक वे ११ पुस्तकों का संकलन-संपादन कर चुके हैं और लगभग ३४ मौलिक कृतियों का प्रणयन ।
जिन्हें सब कहीं म निश्री 'मधुकर' के रूप में जाना जाता है, वे एक रससिद्ध संत साहित्यकार तो हैं ही, युवा और वृद्ध पीढ़ी के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी भी हैं। वे एक मनस्वी साधक हैं, भावनाशील हृदय के साहित्य-मनीषी हैं, अनेक भाषाओं के जानकार हैं, जीवन और जगत् के पारखी हैं, और जनतत्त्व-दर्शन के एक जिज्ञासु विशेषज्ञ हैं। आगामी २३ दिसम्बर १९७७: मार्गशीर्ष शुक्ल १३ को वे अपने जीवन के ४० वर्ष संपन्न कर ४१वें वर्ष में मंगल प्रवेश करेंगे। इस बीच उनकी कुछ ऐसी मूल्यवान कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जो 'यावच्चन्द्रदिवाकरौं कभी पुरानी नहीं होंगी और मनुष्य-मात्र के लिए प्रेरणा एवं उत्थान की अजस्र स्रोत बनी रहेंगी। जैनमुनि के जीवन से जुड़ा सबमें महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह पाँव-पैदल सारा देश घूमता है, और अपने देश के जन-जन से जीता-जागता जीवन्त बिना किसी जातीय भेदभाव के एक आत्मीय परिजन की भाँति जनताजनार्दन को प्रभावित करता है। यदि हम गौर करें तो देखेंगे कि जैनसाधु नीतिशास्त्र के चलते-फिरते विश्वविद्यालय है; क्योंकि जो काम आज की शिक्षण-संस्थाएँ भारी खर्च पर नहीं कर पा रही हैं, उसे जनसाधु महज ही संपन्न कर रहे हैं। ____ और फिर मुनिश्री जयन्तविजयजी की सबसे बड़ी विशेषता है उनका अनेक भाषाओं का जानना । वे हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी जैसी साहित्यिक भाषाओं के जानकार तो हैं ही, उन्हें मालवी, मेवाड़ी और मारवाड़ी जैसी लोकभाषाओं पर भी अच्छा अधिकार है। यही कारण है कि उनके प्रेरक प्रवचन गजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश की जनता को एक डोर में बांधने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। उनके प्रवचनों में प्राचीन भाषाओं का वैभव, वर्तमान भाषाओं की जीवन्तता, और लोकभाषाओं की अलोकिक भावुरी पग-पग पर छलकती मिलती है। इस भाषावैविध्य के कारण ही उनकी भाषा-शैली सहज, स्वाभाविक, सुमधर, सुगम और सुप्रभावी है; वहाँ न किसी भाषा पर विशिष्ट अनुराग है, न कोई द्वेष, बल्कि एक ही लक्ष्य है मानव-जीवन को संस्कृति, नीति और अध्यात्म के नये आयाम देना-इसीलिए मुनिश्री के प्रवचन बहुआयामी, अनेकान्तात्मक, और अनायास ही दुराग्रहों से मुक्त हैं।
यह कभी संभव ही नहीं है कि किसी साहित्य-मनीषी का साहित्य अलग हो और जीवन अलग । “जैसा जीवन, वैसा लेखन" की दृष्टि से मुनिश्री मधुकरजी का संपूर्ण साहित्य एक निश्छल साधनावान, तपश्चर्यारत जीवन का उत्कृष्ट प्रतिबिम्ब है, शत-सहस्र सामान्य गृहस्थजनों को प्रेरित करता है और उन्हें एक उदात्त, श्रेयस्कर जीवन के लिए तत्पर करता है। जो काम श्रीमद्विजय-राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने आज से लगभग एक सदी पहले शुरू किया था, वह मधुकरजी के जीवन में और आगे बढ़ा है। यह कोई प्रच्छन्न तथ्य नहीं है वरन् एक उजागर सचाई है, जिसे उनकी भीड़-भरी प्रवचन-सभाओं में आसानी से खोजा जा सकता है। जो लोग यह मानते हैं कि, हम अतीत से हर हालत में बंधे रहेंगे, जल रुक गया होगा और उसमें सड़ांध पैदा हो चुकी होगी तो भी उसे काम में लेंगे, तो ऐसे अन्धविश्वासियों से मुनिश्री का कोई रिश्ता नहीं है, वे जल के निर्मल होने में भरोसा रखते हैं और अतीत के प्रति मात्र उज्ज्वलता का सगपण रखते हैं, आवश्यकत पड़ने पर आत्मिक उत्थान के लिए वे उसे भी तिलांजलि देने में किसी संकोच या भय का अनुभव नहीं करते। इस माने में वे श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वर के सच्चे प्रतिनिधि हैं, और उनकी उस उदात्त तटस्थ, निर्मम, कठोर, निर्मल परम्परा का समीचीन निर्वाह कर रहे हैं । जैन दर्शन की गहराइयों और उसकी निर्मलताओं को आम आदमी तक पहुँचाने का जो काम मुनिश्री मधुकरजी ने किया है, कर रहे हैं, उसकी उपमा उनका कार्य स्वयं है। वे अनन्य हैं। संक्षेपतः वे एक वाग्मी वक्ता हैं, बेलाग समीक्षक हैं, और ऐसे सारे कामों के विश्वासी हैं जो मनुष्य को कदम-दर-कदम बेहतर बनाते हैं, उसकी स्वाभाविक शक्तियों को जगाते हैं। उनके प्रवचनों से हम उनकी लोकप्रियता, उनके संप्रदायातीत व्यक्तित्व, स्वदेशभक्ति और समाज की संस्कारशुद्धि-भावना की थाह ले सकते हैं।
मुनिश्री मधुकरजी का दीक्षा-पूर्व जीवन बहुत सादगीपूर्ण, सुसंस्कार-संपन्न और आत्मोन्मुख था। दीक्षित होने से पहले उन्हें
वी.नि. सं. २५०३
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