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Daula
पूज्य मनिश्री की समस्त कृतियों का परिदर्शन पूनमचन्द कहा जाता था। वे उत्तर गुजरात के पेपराल ग्राम में जन्मे । उनकी पूज्य मातथी का नाम श्रीमती पार्वतीबाई और पूज्य पिताश्री का नाम श्री स्वरूपचन्द धरू है। पूनमचन्द की बुद्धि कुशाग्र थी और आरंभसे ही उसकी जैनतत्त्व-दर्शन की तल-अतल गहराइयों में उतरकर अवगाहन करने की प्रकृति थी, यही कारण है कि जीवन का मध्याहन जैसे लगा वैसे ही वे सत्रह वर्ष की गदराई अवस्था में वैराग्य की ओर मड़ गये। सियाणा (राजस्थान) में भरी तरुणाई में उन्होंने श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी से दीक्षा ग्रहण की; और तभी से उनके प्रमख लक्ष्य रहे-कठोर साधना, लोकोपयोगी सूजन, समाज-सेवा । आत्मोत्थान में अनक्षण जागृत मुनिश्री मधुकरजी का वक्त घड़ी के काँटों की भांति माहित्य-प्रणयन, धर्म-स्वाध्याय, तत्त्व-दर्शनमनन-अध्ययन में लगा रहता है। किन्तु इतना सब होते हुए भी वे कभी समाज की उपेक्षा नहीं करते, उसे समय देते हैं, और सामाजिकों के संस्कार-परिष्कार में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अदृप्त ज्ञानानराग के कारण ही वे जैन समाज को रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और अज्ञान के निबिड़-दुर्भेद्य अंधेरों से बाहर खींच लाये हैं और पुरी कोशिश से उसे आलोकित करने में लगे हुए हैं।
मनिधी का साहित्य विपुल है, जिसे हम सुविधा के लिए छह वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
(१) धार्मिक माहित्य-इसके अन्तर्गत उनकी वे कृतियाँ आती हैं, जो व्रत, पूजा, प्रतिक्रमण, अनुष्ठान, तीर्थ-परिचय इत्यादि से सम्बन्धित हैं।
(२) जीवन-प्रेरक माहित्य-सूक्तियों के संकलन और भक्तिसम्बन्धी कृतियाँ इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
(३) सिद्धान्त-विवेचना से सम्बन्धित साहित्य-“श्री जीवभेद-विज्ञान", "राजेन्द्र कोष में 'अ' जैसी सैद्धान्तिक कृतियों को इम वर्ग के अन्तर्गत रखा जा सकता है।
(४) भगव न महावीर और उनके उपदेशों से सम्बन्धित साहित्य-इसके अन्तर्गत "भगवान महावीर ने क्या कहा?" जैसी कृतियाँ आयेंगी।
(५) गुरुभक्ति से सम्बन्धित साहित्य-"पूजात्रयम्" इत्यादि को इसके अन्तर्गत लिया जा सकता है।
(६) धर्मेतर माहित्य-"ज्योतिष-प्रवेश" इसके अन्तर्गत आता है।
साहित्य की विविध शैलियों और विधाओं की दृष्टि से मुनिश्री मधुकरजी के साहित्य को हम निम्न ४ श्रेणियों में संयोजित करेंगे
(१) काव्य (पद्य)-इसके अन्तर्गत गीत, वन्दनाएँ, पुजाएँ, भजन इत्यादि आते हैं।
(२) गद्य-इसके अन्तर्गत आते हैं पर्युषण-व्याख्यान, सूत्रविशदीकरण, प्रवचन-संकलन, मूक्ति-संकलन, विभिन्न पुस्तकों के लिए समय-समय पर लिखी गयी भनिभाएँ इत्यादि।
(३) गद्य-पद्य (मित्र)-इसके अन्तर्गत आने वाले साहित्य को हम गद्यकाच्य कह सकते हैं। मूलतः मुनिश्री मधुकरजी कविहृदय साहित्यकार हैं, इसलिए महज ही उनके संपूर्ण गद्य-साहित्य पर एक झीनी-सी काव्य-छटा छायी हुई हैं। इससे जहाँ एक ओर वे लोकप्रिय हुए हैं, उनके पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर उनके काव्य में प्रसाद गुण परिपुष्ट हुआ है। उनके शब्द-चयन, पद-स्थापन और वाक्य-गठन तक में काव्य की यह सुरभि व्याप्त है । इस शैली के अन्तर्गत हम "पारस मणि" • "जीवन-मन्त्र" "जीवन-साधना" जैसी बहमल्य कृतियों की गणना कर सकते हैं।
(४) लोकवार्ता शैली-इसके अन्तर्गत उनके ऐसे भजन और गीत आते हैं, जो उन्होंने लोक या फिल्मी धुनों पर लिखे हैं। "भक्ति-भावना (हिन्दी, गुजराती)"; "भक्ति-सुधा" में उनकी ऐसी रचनाएँ संकलित हैं । ____ जहाँ तक मुनिश्री की भाषा-शैली वा प्रश्न है, उन्हें हिन्दी
और गुजराती भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त है। उनके वाक्य-विन्यास सहज-स्वाभाविक, लययुक्त अर्थात, सांगीतिक, संतृलित, निर्दोष है इसलिए आकर्षक, निमंत्रणीय और सुगम होते हैं । बहुत बड़े, भारी-भरकम, क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ शब्दों के प्रयोग की आदत उन्हें नहीं है । साफ-सुथरे लेखन के अभ्यासी श्री 'मधुकर' मुनि इसीलिए संतों की भांति बेलाग, तटस्थ और स्याद्वादी रहकर अपनी बात प्रस्तुत करने में सफल, समर्थ और सहज हैं। सातवीं कक्षा तक लौकिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी प्रतिभा और मनीषा के धनी मुनिधी संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी के निष्णात पंडित हैं, सच तो यह है कि उन्हें भाषा की यह बहुमूल्य बिरासत अपने परमगुरु श्रीमद्विजययतीन्द्रगूरीश्वरजी से वरदानस्वरूप मिली है। जहाँ तक उनकी शैली का प्रश्न है, वह भावप्रवण है, समास और व्यास शैलियों का मध्यम रूप हैं; जहाँ, जैसी विषय-वस्तु होती है तदनुरूप वे संक्षेप-विस्तार का उपयोग करते हैं। विषय की अनावश्यक खींचतान में उनकी कोई रुचि नहीं है, कम-से-कम शब्दों में पाठक को या श्रोता को उबाये बिना वे अपने विचार प्रस्तुत करने में ही विश्वास रखते हैं। इसलिए "भगवान महावीर ने क्या कहा ?" उनकी ऐसी पुस्तक नहीं है,
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राजेन्द्र-ज्योति
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