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जो सिर्फ दिग्गजों के उपयोग की ही हो वरन् एक ऐसी कृति है जिसे कोई भी बिना किसी कठिनाई के पढ़-समझ सकता है, और अपने जीवन को नयी करवट दे सकता है।
राजेन्द्र कोष" में 'अ'" भी उनकी एक ऐसी ही अनन्यअद्वितीय कृति है। कुल मिलाकर उनकी शैली का चरित्र बातचीतजैसा ही है, पग-पग पर अमुभव होता हैं जैसे कोई आत्मीय जन कान में जीवन को नवोत्थान देनेवाला कोई मन्त्र फेंक रहा है, हित-मित सलाह दे रहा है। उनके प्रवचनों की यह चुम्बकीय आत्मीयता किसी को भी उनका अपना बना लेती है। यदि हम उपमाओं में यात्रा करना पसंद करें तो कहेंगे कि मुनिश्री में अमराइयों-सी शोभाश्री और शीतल-सघन छाँव, नदी के प्रवाह-सी ताजगी और तेजस्विनी गतिशीलता, और एक संत-सी निष्कामता सहज ही उपलब्ध है । वे सबसे पहले एक मनस्वी संत हैं, तदनन्तर साहित्यसृष्टा । उनके साहित्य के दो स्पष्ट लक्ष्य-बिन्दु हैं-आत्महित, समाजहित । साहित्य की व्युत्पत्ति में सन्निहित "हित का भाव" उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों में परिलक्षित है । वे सत्य, शिव, सुन्दर के समन्वय हैं । वे सर्वत्र बन्धु, विश्वबन्धु हैं, अपरंपार वत्सलता के धनी ।
उनके संपूर्ण साहित्य का कालानुक्रम विहंगावलोकन इस प्रकार संभव है
-वी. नि. संवत् २४८९ : दीक्षा के ६ मास बाद सर्वप्रथम कृति 'पीयूषप्रभा" का गुजराती में प्रकाशन, इसी वर्ष हिन्दी में "आत्मदर्पण"; -वी. नि. सं. २४६१ में "आत्मदर्पण" हिन्दी में; -वी. नि. सं. २४८२ में "शीलत्व का सौरभ" हिन्दी में; -वी. नि. सं. २४८७ में 'पारस मणि" गुजराती में, “साधक नी प्रार्थना" तथा "जयविराय प्रार्थना सूत्र" जैसी चिन्तनात्मक कृतियों का प्रकाशन; -वी. नि. सं. २४८९ में “जीवनधन" गुजराती में; इसमें मुनिश्री की युवा ऊर्जा का अच्छा प्रतिबिम्ब मिलता है। यह एक विचारोत्तेजक और आत्मोत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्ट कृति है, जिसके कुछ लेख-शीर्षक हैं-"अंतरना मंदिर अंजवाली" "घर शणगारवा कया रे?" -वी. नि. सं. २४९२ : हिन्दी में “जीवन-मंत्र" और गुजराती में 'सोनेरी संभारणा" कृतियों का प्रकाशन; इनमें से प्रथम का सम्बन्ध चरित्र-निर्माण और द्वितीय का सम्बन्ध धानेरा तीर्थ-परिचय से है। दोनों ही महत्त्वपूर्ण, मननीय
और संकलनीय हैं; -धी. नि. सं. २४९३ : "नवकार गुण-गंगा" प्रथम संस्करण गुजराती में प्रकाशित हुआ तदनन्तर क्रमशः २४९४, २४९६. २४९९, २५०० और २५०३ में इसके हिन्दी-अनुवाद प्रकाश में आये;
-वी.नि. सं. २४९४ : हिन्दी में "सविधि साधु पंचप्रतिक्रमण सूत्र" प्रकाशित हुआ, जिसकी प्रथमावृत्ति का संशोधन श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी ने स्वयं किया था; प्रथमावृत्ति कब प्रकाशित हुई इसका कोई उल्लेख संशोधित-परिवद्धित संस्करण में नहीं है। -वी.नि.सं. २४०६ : हिन्दी में 'पारस मणि" का प्रकाशन; यह कृति मुनिश्री के भावात्मक गद्य का प्रतिनिधि उदाहरण है; -वी. नि. सं. २४९७ : हिन्दी में "जीवन-साधना" तथा "भक्ति-भावना" का प्रकाशन, यह विद्वान् लेखक की एक अत्यधिक लोकप्रिय कृति है, जिसमें ८ पर्युषण-प्रवचन संकलित हैं, इसे बातचीत-जैसी घरेलू शैली में लिखा गया है, लगता है जैसे किसी हितेषी ने अंधेरे में एक दीया उजास दिया है। इसी वर्ष "मुहूर्तादिसंग्रह" भी प्रकाशित हुआ, जो आगे चलकर "ज्योतिष-प्रवेश" के रूप में नामान्तर से पल्लवितपरिवद्धित हुआ; -वी. नि.सं. २४९८ : "जीवन-साधना" का गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुआ; इसी वर्ष "भक्ति-भावना" भी हिन्दी में आई; "पूजात्रयम्" की प्रथमावृत्ति तथा "प्रकरण चतुष्टय" की संशोधित वृत्ति भी इसी वर्ष प्रकाशित हुई, सिद्धान्त-विवेचन की दृष्टि से "श्रीजीवभेद विज्ञान" जैसी लघु किन्तु महत्व की कृति का प्रकाशन भी हुआ; -वी. नि सं. २४९९ : "राजेन्द्र कोष में अ" "ज्योतिष-प्रवेश" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए; -वी. नि. सं. २५०० : "नवकार गुण-गंगा" का चतुर्थ
संस्करण प्रकाश में आया; -वी. नि. सं. २५०१ : "भक्ति-सुधा" तथा "भगवान महावीर ने क्या कहा ?" हिन्दी में प्रकाशित हुई; । -वी. नि. सं. २५०२ : श्री आदीश्वर जिनेन्द्र पंचकल्याणक
पूजा" प्रकाशित हुई; -वी. नि. सं. २५०३ : 'दर्शनविधि-दर्पण" का प्रकाशन हुआ; इसी वर्ष ''भगवान महावीर ने क्या कहा?" का गुजराती में "भगवान महावीर शं का?" शीर्षक से अनुबाद प्रकाशित हुआ; "श्री राजेन्द्र-ज्योति' ग्रन्थ के संपादन-प्रकाशन में मुनिश्री ने प्रमुख मार्गदर्शन दिया और एक सक्रिय रचनात्मक भूमिका निभायी; -वी. नि. सं. २५०४ के लिए "भगवान महावीर ने क्या कहा?" के हिन्दी संस्करण की द्वितीयावृत्ति मुद्रणाधीन है।
इस तरह मुनिश्री "मधुकर" जी के साधनारत जीवन का एक उज्जवल और प्रेरक पक्ष है साहित्य-सृष्टि, जिसने जैन साहित्य को तो समृद्ध किया ही, समाज के उदीयमान लेखकों और रचनाकारों को भी अधुनातन भाषा-शैली में लिखने के लिए उत्साहित किया।
वी. नि. सं. २५०३/ख-२
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