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शैली के दर्शन परवर्ती आचार्य विद्यानन्द की तत्वार्थश्लोकवार्तिक में होते हैं न कि पूर्ववर्ती आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में । अतः स्पष्ट है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, यह निश्चित हैं कि जिसका रचनाकाल सर्वार्थसिद्धि के पश्चात् है, तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व ही रची गई ।
विषय-विकास
अ] नेतत्वार्थसून ४-४१ की तत्वार्थराजनातिक में सात वार्तिकों द्वारा जिस विषय को कहा है, वही विषय तत्वाभाव्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति में सूत्ररूप में उपलब्ध है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि पूज्यपाद ने तत्वार्थभाष्य में कहे गए इन सूत्रों को सूत्र रूप में सर्वार्थसिद्धि में क्यों नहीं कहा है ? संभवतः पूज्यपाद को ये सूत्र अनावश्यक प्रतीत हुए हों । अतः संभव है कि तत्वार्थराजवार्तिक की रचना से पूर्व तत्वार्थ भाष्य पर वृत्ति लिखी जा चुकी थी तथा वे सूत्र, जो तत्वार्थ भाष्य में सूत्र रूप में उपलब्ध हैं, भी (किसी संप्रदाय विशेष में मान्य) तत्वार्थसूत्र में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुके थे, अतः तत्वार्थराजवार्तिककार के लिये असंभव हो गया था कि पूज्यपाद की भांति ( किसी परंपरा में मान्यता प्राप्त) उन सूत्रों का उल्लेख ही न करते । इसके साथ ही सर्वार्थसिद्धि मान्य सूत्रपाठ का अनुसरण करने वाले तत्वार्थराजवार्तिककार के लिये तत्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्य मान्य सूत्रों का तत्रूप में ग्रहण करना भी आवश्यक था। अतः अकलंक ने उन सूत्रों का वार्तिक रूप में तत्वार्थ राजवार्तिक में समावेश कर लिया। इस विवरण से प्रतीत होता है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व हुई ।
परम्परा-विशेष के मत का स्थापन करने की प्रवृत्ति
तत्वार्थ सूत्र ८०१ की तत्वार्थ राजवादि में कलंक ने कहा है- "केवली कबलाहारी है, स्त्री मुक्ति हो सकती है. सपरिग्रही भी निर्ग्रन्थ हो सकता है आदि विपरीत मिथ्यात्व है । 33" अकलंक का यह विचार श्वेताम्बर मान्यता के विरुद्ध है क्योंकि श्वेताम्बर के आगमानुसार स्वीमुक्ति आदि हो सकती है । यह सर्वमान्य है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति श्वेतांबर परंपरानुकूल लिखी गई है, पर प्रस्तुत प्रसंग में अकलंक के कथन का खंडन तत्वार्थभाष्यवृत्ति में नहीं है । यदि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवार्तिक के पश्चात् लिखी जाती तो उसमें उपरोक्त कथन, जी तत्वार्थराजनातिक में है, का निराकरण सिद्धसेनगण अवश्य करते क्योंकि तत्वार्थभाष्यवृत्ति का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि सिद्धसेनगणि का आगम विरोधी कथन, चाहे कितना ही तर्कसंगत क्यों न हो, अमान्य है । अतः तत्वार्थ राजवार्तिक में उपलब्ध उपरलिखित कथन, जो श्वेतांबर आगम-विरोधी है, का निरसन सिद्धसेनगण अवश्य करते, यदि उनके संमुख तत्वार्थराजवालिक होता
३३. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५६४
वी. नि. सं. २५०३
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उपरलिखित सभी तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सिद्धसेनमणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजाति से पूर्व रची गई ।
किन्हीं विद्वानों का मत है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजबार्तिक के पश्चात् रची गई क्योंकि "सिद्धिविनिश्चय" जो संभवत: तत्वार्थ राजवार्तिककार अकलंक की रचना है, 4 का उल्लेख तत्वार्थभाष्यवृत्ति में मिलता है 135 इस मत का विरोध प्रो. हीरालाल रसिकदास कापडिया ने किया है । उनके विचारानुसार सिद्धिविनिश्चय, जिस पर अनन्तवीर्य द्वारा लिखी गई टीका उपलब्ध है, तत्वार्थराजवार्तिककार अकलंक की रचना मानना असंभव है । यदि यह निश्चित भी हो जाय, जैसा कि पं. सुखलालजी का विचार है, 37 कि सिद्धिविनिश्चय तत्वार्थराज वार्तिककार अकलंक की कृति है तब भी यह मानना आवश्यक नहीं कि तत्वावातिक तत्वार्थभाष्यवृत्ति से पूर्व ही रची गई । यह कहा जा चुका है कि अकलंक तथा सिद्धसेनगणि समकालीन हैं। जैन लक्षणावली में भी अकलंक तथा सिद्धसेनगणि का समय क्रमशः विक्रम की ८-९ वीं शती ९वीं शती कहा गया है । 38 पं. सुखलालजी ने इनका समय विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी माना है । 3 दोनों विद्वानों के मत को पृथक् पृथक् मानने पर भी अकलंक तथा सिद्धसेनगणि की समकालीनता सिद्ध होती है । पर दोनों लेखकों द्वारा रचे गये ग्रंथों में तो पौर्वापर्य तो होगा ही, चाहे वह अन्तर केवल दस-पन्द्रह वर्ष का ही हो । अतः संभव है कि अकलंक ने तत्वार्थराजवार्तिक रचने से पहले ही सिद्धिविनिश्चय रच लिया हो और उसी का उल्लेख सिद्धसेनगणि ने सत्वार्थभाष्यवृत्ति में किया हो। इसी आधार पर यह भी संभव है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवातिक से पूर्व हुई हो । सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तथा तत्वार्थराजाति की अन्तः परीक्षा से भी यही सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थराजातिक रचते समय भट्ट अकलंक के सम्मुख सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति थी, जिसका अकलंक ने] तत्वार्यराजवार्तिक में उपयोग किया है ।
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रचना-शैली
तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थसूत्र के भाष्य पर रची गई है। ३४. भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा रचित दो सिद्धिविनिश्चय मिलते हैं। ३५. सिद्धगण तत्वार्थ भाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पू. ३७ २६. सिद्धसेनमणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, प्रस्ता (अंग्रेजी पृ. ६३ टिप्पणी ६
३७. पं. सुखलालजी, तत्वार्थ सूत्र (हिन्दी) परिचय, पृ. ४२ ३८. पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित, जैन लक्षणावली,
भाग प्रथम, दिल्ली, सन् १९७२ पंथकारानुक्रमणिका पृ. १७ तथा १९
३९. पं. सुखलाल, तत्वार्थ सूत्र (हिन्दी) परिचय, पृ. ४२ तथा ४८
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