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कन्धराओं से निकालकर जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है, प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार कर्मवाद आत्मा को निराशा से बचाता है। जैन दर्शन प्ररूपित कर्मवाद जीवन के अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर हमारे सम्मुख प्रकट कर देता है। इसके अतिरिक्त दुःखकष्ट सहने की क्षमता प्रदान करता है। संकटाकीर्ण समय में भी ध्रुव की भांति स्थिर रहने का दिव्य संदेश देता है । जीवन में शांति, समता, उदारता, सहिष्णता आदि सद्गुणों को अभिव्यक्त करने में कर्मवाद बहत सहायक सिद्ध होता है। कर्मवाद को समझ लेने पर उतार-चढ़ाव की सम-विषम परिस्थितियां विचलित नहीं कर सकती हैं। सुख आता है तो भी स्वागत है और कष्ट आता है तो उसका भी स्वागत है। कर्मवाद में अटल आस्था, विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह सोचता है कि जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता निर्मित करने वाला मैं स्वयं ही हूं, फलस्वरूप उसका फल भी मुझे ही भुगतना है। ऐसी भावना, ऐसी दृष्टि मानव जीवन को स्वर्गमय, सन्तोषमय और आनन्दमय बना देती है।
कर्मवाद का जीवन में यही उपयोग है, यही महत्ता है, यही गरिमा है और यही अपूर्व देन है।
इस तरह कर्मवाद का भारतीय दर्शन में, विशेष तौर से जैन दर्शन में विशिष्ट स्थान है, उसमें भी जैन दर्शन के कर्मवाद का तो अपना एक अलग ही महत्व है जो विश्व इतिहास की अद्वितीय देन है। इस कर्मशास्त्र ने मानव को सम-विषम परिस्थिति में सूर्य के प्रकाश की भांति ही नहीं बल्कि मेरु की तरह अचल, अकम्पित रहने की प्रेरणा दी है।
कर्मवाद की गरिमा के गीत तो पाश्चात्य दार्शनिक मेक्समूलर ने भी गाए हैं
"यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता है कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता; यह तो नीति शास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल-संरक्षण संबंधी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीति शिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला
इससे साफ जाहिर है कि भारतीय दर्शन का कर्मवाद का सिद्धान्त अपने आप में अबाध्य, अकाट्य और बेजोड़ है। आधुनिक युग के इस विज्ञान और विनाशकाल में भी यह सिद्धान्त मानव जीवन को सुख, सन्तोष, समता और सहिष्णुता की सुरभि से सुवासित कर सकता है; निराशा के अन्धकार में भी प्रकाश की किरणें बिखेर सकता है। जन-जीवन के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य कर सकता है। यही कर्मवाद की जीवन में सबसे बड़ी उपयोगिता है।
परिग्रह-संचय शान्ति का शत्रु है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम-स्थल है, बुरे विचारों का क्रीडोद्यान है, घबराहट का खजाना है, प्रमत्तता का मन्त्री है और लड़ाई-दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों का कोष है और विपत्तियों का विशाल स्थान है, अत: जो इसे छोड़कर सन्तोष धारण कर लेता है, वह संसार में सर्वत्र-सदैव सुखी रहता है।
-राजेन्द्र मूरि
वी. नि. सं. २५०३
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