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ही हैं। वृक्ष लगाये जाते हैं, किंतु कुछ दिनों बाद उजड़ जाते हैं । हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम महत्ता किसी भी संदर्भ की जानते हैं । किन्तु आचरण में उसे बहुत कम प्रतिबिम्बित करते हैं। हम जानते हैं कि यदि वनस्पति नहीं होगी तो देश उजड़ जाएगा, मरुस्थल बन जाएगा । झाड़-पेड़ धरती को मरुस्थल होने से रोकते हैं। उसे हरा-भरा रखते हैं । सांप जैसा विषैला प्राणी भी खेती का मित्र है । वस्तुतः संसार का ऐसा कोई अस्तित्व नहीं है, जो संसार को सुन्दर बनाने में, उसे समृद्ध करने में अपनी भूमिका अदा न करता हो, किन्तु आदमी है कि इस एवज में उसके प्राणों का अपहरण करता है । खरगोश सुन्दर है, तो उसे आदमी खा जाना चाहता है; हरिण नयनाभिराम है तो आदमी उसका शिकार करता है; मतलब, जो सुन्दर है आदमी उसे दंडित करने पर तुला हुआ है।
आदमी के इस रुख से अन्ततः धरती की हानि ही है। वास्तव में सृष्टि का अपना एक स्वाभाविक सन्तुलन है, जिसे मनुष्य अपने अविवेकपूर्ण कृत्यों द्वारा बिगाड़ना चाहता है, बिगाड़ रहा है। यह धरती के चारों ओर मढ़ी हरी खोल को नष्ट करना चाहता है, जो आगे चल कर उसकी आगामी पीढ़ी को खतरे में डाल देगी। शायद हम नहीं जानते कि आदमी द्वारा उत्पन्न प्रदूषण को प्राणि-जगत् बहुत झेल रहा है। पेड़-पौधे वह सब खा रहे हैं, जो आदमी का उच्छिष्ट है, परित्यक्त है। कई पशु हमारे द्वारा विसर्जित सामग्री का उपभोग करते हैं और धरती के आगामी ज़हर को अमृत में बदलते हैं । सार-सार हम खा रहे हैं, और जो प्राणि-जगत् निस्सार को ग्रहण कर रहा है, उसे उपयोगी पदार्थों में बदल रहा है, उसके प्रति कृतज्ञ होने की जगह हम उसके प्राणों का संहार कर रहे हैं। देश में आज जितने कसाई पर हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे। यह परोपकारी प्राणिजगत् के प्रति मनुष की लता है।
यह मानना कि कसाईखाने कोई अनिवार्यता है और पशुओं की आबादी पर एकमात्र नियंत्रण साधन हैं, मूर्खतापूर्ण धारणा है । पश्चिम अब अपनी भूल समझने लगा है, और प्राकृतिक जीवन की ओर लौटने की ओर क़दम उठा रहा है, वहाँ शाकाहार बढ़ रहा है; किन्तु भारत पश्चिम की नक़ल पर है, यहाँ आमिष भोज बढ़ रहा है। मांस-मछली का आज अधिकाधिक उपयोग होता है । यह शुभ शकुन नहीं है। जो लोग आहार-विज्ञान के विशेषज्ञ है, वे मांसाहार से होने वाले अनगिन असाध्य रोगों की जानकारी दे सकते हैं ये आहार-विज्ञानी न केवल मांसाहार की कायिक प्रक्रिया की बात करते हैं वरन् मन पर होने वाले असर और परिणाम की जानकारी भी देते हैं। भारत में तो यह कहावत है कि "जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन्न"। तामस भोजन तामस स्थितियों को उत्पन्न करता है । नित प्रति होने वाले गृह कलह, कत्ल, खून-खराबे, नईनई किस्म के अपराध तामसिक आहार के ही नतीजे हैं। उधर चिकित्सा शास्त्र ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि मांसाहार शराब तथा अन्य मादक द्रव्यों का उपयोग अनेक असाध्य रोगों को उत्पन्न करता है । इनका त्याग किया जाना चाहिये । चारों ओर से आदमी को विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं उन खतरों के प्रति जो उसके
बी. मि. सं. २५०३
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असंतुलित और अविवेकपूर्ण खानपान की वजह से उसके चारों ओर मंडरा रहे हैं। मैं अपने एक ऐसे मित्र को जानता हूँ जो अव्वल दर्जे के पर्वतारोही है, किन्तु कट्टर शाकाहारी है। उनका कथन है कि जो लोग आमिष भोजी हैं वे पर्वतारोहण में जल्दी थक कर चूर हो जाते हैं, हॉफने लगते हैं, किन्तु मैं कभी किसी प्रकार की मकान महसूस नहीं करता। इससे यह सिद्ध हुआ कि मांसाहार भले ही हमारी स्वाद- लिता को तृप्त करता हो किन्तु वह हितकर और पौष्टिक नहीं है।
जैनधर्म शताब्दियों से शाकाहार और अहिंसक जीवन-शैली का प्रतिपादन करता आ रहा है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन से मांसाहार का कोई तालमेल नहीं है । इसकी आध्यात्मिकता के साथ तो स्वप्न में भी कोई संगति नहीं है। धर्मं, फिर संसार का वह कोई भी धर्म हो, मांसाहार का पक्षधर नहीं है, वहाँ प्राणिहिंसा का सर्वत्र विरोध किया गया है; किन्तु आज जो हो रहा है वह मनुष्यता को कलुषित-कलंकित करने वाला है। होना वस्तुतः यह चाहिये कि देश के सारे कसाईखाने बन्द कर दिये जाएं, या कम से कम सीमित कर दिये जाएँ और शराब पर कड़ी पाबन्दी लगायी जाए, इससे हमारी खाद्य समस्या उग्र नहीं वरन् सह्य होगी। देखा यह गया है कि जो मांसाहारी हैं वे मांस तो खाते ही हैं, शाकाहार भी लेते हैं और शाकाहारी की अपेक्षा परिमाण में अधिक बाते हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि शाकाहारी मिताहारी होता है, उसकी सात्विकता उसे शरीर से अन्यत्र ले जाती है और आध्यात्मिक होने के कारण वह न तो जिह्वालोलुपी ही होता है और न ही अधिक आहारी; अतः जैनों को जीव रक्षा का जो कार्य आज मन्द-सुस्त पड़ा हुआ है, अधिक रफ्तार से करना चाहिये, क्योंकि हम जानते हैं कि प्रकृति का यह सूत्र सदैव हमारे साथ है कि "जैसा जो बोया जाएगा, वैसा वह फसल के रूप में सामने आयेगा"। यदि हम हिंसा, बैर बोयेंगे तो हिंसा की फसल ही हमें काटनी होगी। मांसाहार का परिणाम कभी-न-कभी किसी बड़ी बदनसीबी के रूप में प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा, इसलिए जैनमात्र को शाकाहार के प्रचार-प्रसार और जीव-रक्षा का एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिये। इसकी एक रूपरेखा इस तरह हो सकती है
( १ ) शाकाहार के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए ऐसे शहरी और ग्रामीण क्लबों की स्थापना की जाए जो शाकाहार की उपयोगिता के हर पहलू को बतलाते हों और मांसाहार से होने वाली हानियों को तर्कसंगत ढंग से प्रतिपादित करते हो इस तरह की छोटी-छोटी दस्तावेजी फिल्में भी तैयार की जानी चाहिये। कुछ साहित्य भी प्रकाशित किया जाना चाहिये उन लोगों के हृदयपरिवर्तन के लिए भी प्रयत्न होना चाहिये जो जीव-हिंसा के व्यवसाय में लगे हुए हैं, यदि समृद्ध जन समाज उन्हें आजीविका के कोई विकल्प दे सकता हो तो उसे वैसा भी अपने सामाजिक स्तर पर करना चाहिये ।
(२) कसाईघरों को बन्द कराने के लिए व्यापक आन्दोलन करना चाहिये, इस व्यवसाय में व्यस्त व्यक्तियों को कुछ अन्य ( शेष पृष्ठ १९० पर)
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