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________________ उपवास और आध्यात्मिक विकास मानकलाल गिरिया उपवास एक धार्मिक क्रिया के रूप में प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में मान्य है । वैदिक-हिन्दू व जैन धर्म में तो उपवास का स्पष्ट विधान हैही किन्तु मुस्लिम धर्म के रोजे भी उपवास का ही एक रूप है । प्रायः उपवास से हमारा अर्थ अन्न अथवा जल या किसी भी प्रकार का खाद्य या पेय के त्याग से ही होता है किन्तु सही रूप में उपवास का अर्थ इससे भिन्न है । उपवास का अर्थ है आत्मा के पास व्याप्त याने आत्मा के निकट निवास और अपनी दृष्टि विश्व के समस्त भौतिक व जड़ पदार्थों से हटाकर अपने स्वयं की ओर ले जाना है। अपनी दृष्टि सभी ओर से--माता की ओर से, पिता की ओर से, पूत्र की ओर से व पुत्री की ओर से, भाई की ओर से, बहिन की ओर से, पत्नि की ओर से, पति की ओर से, मित्र की ओर से, शत्रु की ओर से स्वयं अपने शरीर की ओर से भी हटाकर केवल अपने स्वयं की ओर याने अपनी आत्मा की ओर जब मानव कर लेता है तो वह उपवास कहलाता है। जब दृष्टि सिर्फ आत्मा की ओर होगी, अपने स्व की ओर होगी, उस परिस्थिति में भूख व प्यास मालूम ही न होगी और अन्न व जल का स्वयं ही त्याग हो जायेगा । यही वास्तविक उपवास का रूप है। प्राय: वैज्ञानिक आधारों पर यह धारणा रही है कि उपवास से स्वास्थ्य लाभ होता है, शरीर स्वस्थ होता है, अन्तड़ियों को आराम मिलने से पेट ठीक होता है और पाचन शक्ति बढ़ती है किन्तु उपवास का उद्देश्य इतना भर नहीं है। एक व्यक्ति आम का वृक्ष लगाता है उसे वर्षों तक सींचता है, श्रम करता है और वह वृक्ष पूर्ण विकसित होने पर फल देता है और उमस भरी दोपहरी में शीतल छाया । वृक्ष लगाते समय उसका उद्देश्य फल प्राप्त करना होता है--शीतल छाया नहीं । छाया तो स्वतः प्राप्त हो जाती है । सिर्फ छाया प्राप्त करने के लिये और भी अनेक वृक्ष हैं जो शीघ्र बढ़ते हैं। ठीक इसी प्रकार उपवास का उद्देश्य मात्र स्वास्थ्य लाभ नहीं है अपितु उपवास आत्म-शान्ति के लिये किया जाता है। स्वास्थ्य लाभ तो उसकी by Produet की भाँति स्वतः हो जाता है । जैन समाज में उपवास का बहुत महत्त्व है व कई व्यक्ति उपवास करते हैं तथा कई व्यक्ति तो ३-४-५-८ से लेकर ३०-४०-५० उपवास तक करते हैं । किन्तु प्रायः देखने में आता है कि उपवास के पश्चात् अधिकांश व्यक्तियों में क्रोध की मात्रा में कुछ वृद्धि हो जाती है । कई व्यक्ति उपवास के समय में चिड़चिड़ापन जाहिर करते हैं उसका कारण यही है कि हम उपवास, उपवास के सही उद्देश्य को जानकर नहीं करते । यदि उपवास के समय हम आत्मचिन्तन, आत्म-रमण करेंगे तो आत्म शान्ति प्राप्त होगी । केवल भोजन छोड़ देने मात्र से काम नहीं चलेगा। प्रायः भोजन के त्याग के पश्चात् हम हमारे दैनिक कार्यों में लीन हो जाते हैं व उपवास के वास्तविक उद्देश्य को ध्यान में नहीं रखते हैं, फलतः हमारा ध्यान भी भोजन पर अधिक केन्द्रित हो जाता है। इस दरमियान हम चाहे शरीर से भोजन न करें मन से चौबीसों घण्टे भोजन करने में लीन रहते हैं। मन में विचार भोजन के व तरह-तरह की अन्य सामग्रियों के आते रहते हैं । सामान्य दिनों में जब हमें उपवास नहीं होता, दोनों वक्त निर्धारित समय पर भोजन करते हैं और हमारा दैनिक कार्य सम्पन्न करते हैं। तब भोजन के समय के अलावा हमारा मन भोज्य-पदार्थों की ओर कतई नहीं जाता किन्तु उपवास के वक्त हमारा मन अधिकांशतः भोजन सामग्री की कल्पना में ही लगा रहता है बल्कि उपवास के पूर्व धारणा से लेकर उपवास काल में पारणा की चिता में हम भोजन के अधिक निकट इस काल में रहते हैं । यही कारण है कि हम वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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