________________
आचार्य विजय भूपेन्द्रसूरिजी
मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, ज्योतिषाचार्य
भोपाल मध्यप्रदेश के प्रमुख शहरों में से एक है और यह अपने सरोवर के लिए प्रसिद्ध है। कहावत भी है कि:--
"ताल तो भोपाल ताल और सब तलैया" इसी भोपाल शहर में श्री भगवानजी नामक एक माली रहते थे। उनकी पत्नी का नाम सरस्वती था। दोनों पति-पत्नी मेहनती जीवन जीते थे और सुखपूर्वक अपना जीवन बिताते थे। उनका व्यवसाय था माली का । अत: वे फूल और फूलमालाएं बनाकर बेचते थे। दोनों सात्विक ढंग से जीवन यापन करते थे और भगवान के भजन में अपना शेष समय व्यतीत करते थे।
समय बीतता गया । संवत् १९४५ को बैशाख सुदी ३ के दिन सरस्वती की कोख से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। पुत्र जन्म के कारण माता-पिता को बड़ी प्रसन्नता हुई। माता-पिता ने पुत्र का नाम देवी चन्द रखा । द्वितीया के चन्द्रमा की तरह देवीचन्द दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। देवीचन्द के एक भाई थे गितका नाम था कुशलचन्द्र और एक बहन थी जिसका नाम था गंगाबाई। देवीचन्द के भाग्य में माता का सुख अधिक नहीं लिखा था अतः उसके बचपन में ही उसके माता का देहावसान हो गया। देवी चन्द निराधार हो गया।
छह साल की उम्र में देवीचन्द को श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। श्रीमद् के दर्शन से उसे परम शांति प्राप्त हुई। इतना मजबूत आधार पाकर उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठी। वह उनकी सेवा में रहने लगा। साल भर गुरु महाराज के साथ विहार कर और उनके प्रवचनादि सुन कर उसने आवश्यक धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । अब वह भागवती प्रव्रज्या का ध्यान करने लगा। उसके मन में महाव्रत धारण करने की भावना प्रबल हो उठी।
सात वर्ष की उम्र हो चुकी थी। श्रीमद् उसकी दीक्षा के प्रति तीव्र अभिलाषा देख कर उसे दीझा देने का निश्चय किया। गुरुदेव ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। उन्होंने दीक्षा का शुभ मुहूर्त निकाला और संवत १९५२, वैशाख सुदी ३ को अलिराजपुर नगर में बडी धूमधाम के साथ विशाल जन-समूह की साक्षी में देवीचन्द को भागवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के बाद उसका नाम मुनि दीपविजय रखा गया। अब वे हमेशा गुरुदेव के साथ विहार करने लगे
और उनके पास संस्कृत व हिन्दी एवं जैन शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। दीक्षा के दो साल बाद श्रीमद् गुरुदेव ने आपको आहोर नगर में जैन संघ की साक्षी से बड़ी दीक्षा प्रदान की। संवत् १९५४ की माघ सुदी ५ का वह दिन था। इस प्रकार आप में मुनि जीवन के अनुरूप गुणों का विकास क्रमशः होता गया। आपने गुरु महाराज के साथ राजगढ़, जावरा, रतलाम, आहोर, शिवगंज, सियाना, कुक्षी और खाचरौद नगर में चातुर्मास किया । आपने हमेशा अपने गुरु की सविनय सेवा-भक्त की। गुरुदेव के स्वर्गवास के पश्चात् आप उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज के साथ रहे और उनके साथ दस चातुर्मास किये। बीस चातुर्मास आपने स्वतंत्र रूप से अलग-अलग गांवों में किये।
श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के बाद विजय धनचन्द्रसूरिजी द्वितीय पट्टधर बने। श्री धनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्वर्गवास के बाद श्री संघ ने आपको आकार्य पद प्रदान करने का निश्चय किया। तदनसार संवत् १९८० ज्येष्ठ सुदी ८ को शुक्रवार के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया और आपको श्रीमद् विजय भुपेन्द्र सूरि के नाम से घोषित किया गया। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के आर तृतीय पट्टधर बने।
आप मागवी, संस्कृत और हिन्दी के पारंगत विद्वान् थे। आपका आगमिक अध्ययन भी बहुत गहरा था। इसी कारण आप आगम
(शेष पृष्ठ ५५ पर)
५०
राजेन्द्र-ज्योति
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org