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समतासागर भूपेन्द्रसूरि
मनोहर मालव देश
भारतवर्ष का मध्यभाग है यह इसीलिये इसे मध्यप्रदेश कहा जाता है।
वांछित वर्षा होती है यहां । व्यापारी और किसान सुख-शांति से जो भी प्राप्त होता है उसी में सन्तोष मानते हैं।
उस समय लोगों की ऐसी तृष्णा नहीं थी कि उन्हें यंत्रवत् बनना पड़े।
इसी मालव भूमि का पुराना जगप्रसिद्ध शहर है भोपाल । लोक जिव्हा पर यह ताल भोपाल के नाम से भी प्रसिद्ध है।
सुविशाल है वहां सरोवर । मानो समुद्र ने ही बाल रूप में वहां विश्राम लिया है। कहावत भी है-ताल तो भोपाल ताल अन्य सब तलैया। इसी विशाल सरोवर के कारण भोपाल जन साधारण की नजरों में समाया हुआ है। __ सब जाति के लोग यहां रहते हैं अपना-अपना भाग्य आजमाते हैं और रोजी-रोटी प्राप्त करते हैं।
जैन और ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र । सब एक दूसरे से मिलजुलकर रहते हैं।
इसी भोपाल में बसते थे भाग्यशाली भगवानदास । माली थे अत: फूल की सुगंध फैलाना ही उनका व्यवसाय था। सुगंध का वितरण और दुर्गन्ध का निष्कासन ही उनकी प्रवृत्ति थी।
पुण्यवती सरस्वती उनकी अर्धांगिनी थी।
साक्षात् सरस्वती समान पत्नी का सहयोग भगवानदास का उत्साह बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।
एक दूसरे के प्रति सहयोग की तैयारी रखना, सुख में सुखी और दुख में दुखी न होते हुए सम स्थिति में रहना और संतोषपूर्वक जीवनयापन करना ही उनका प्रमुख ध्येय था।
भगवान के घर सरस्वती, कितना सुन्दर योग। सचमुच असाधारण था यह योग भगवान की भावना और सरस्वती का तदनुसार निर्माण आदर्श दाम्पत्य का सबूत था।
भगवान के घर जन्म लेने के लिए भी पुण्योदय ही चाहिये सरस्वती की गोदी में खेलने वाला कोई विरला ही हो सकता है।
विक्रम की बीसवीं सदी के चार दशक बीत गये। विक्रम संवत् १९४४ चल रहा था। उस समय ।
सरस्वती की कोख को सौभाग्यमान करने वाले नररत्न के गर्भावतरण के चिह्न दिखाई देने लगे।
जब किसी धार्मिक प्रवृत्ति की बातचीत चलती तब वह पुण्यवती उसमें आकंठ डूब जाती। उसे इन बातों में बहुत आनन्द आता।
वैशाखी तृतीया का दिन आया । त्यौहार का दिन है यह अक्षय तृतीया । धार्मिक श्रद्धावान लोग हर्षित होकर इस त्यौहार को भावपूर्वक मनाते हैं और अक्षय पद प्राप्ति की इच्छा करते हैं।
इसी पुनीत दिन सरस्वती की कोख से सर्वलक्षण सम्पन्न एक बालक का जन्म हुआ।
बड़ी खुशी हुई सब को। भगवान और सरस्वती के भाग जाग गये।
लाड़ले इस लाल का नाम भी ऐसा ही रखा गया। देव का चन्द्र अथवा देवों में चन्द्र अर्थात देवीचन्द ।
जैसे अक्षय तृतीया का चन्द्र प्रकाशमान होते होते सोलह कलाओं से प्रकाशमान होता है वैसे ही देवीचन्द भी दिनोंदिन वृद्धिगत होते गये।
सरस्वती के संस्कारों की छाप अमिट थी। भगवान की प्रवृत्तियों का सुन्दर सहवास था। माता-पिता की प्रकृति और प्रवृत्ति
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