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दोहा जैन साहित्य मुक्तक काव्य के उत्तम आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। इनमें साहित्यिक ऊंचाई रस परिपाक के रूप में तो नहीं है किंतु व्यक्ति की अभिव्यक्ति जिस रूप में हुई है वह इतना प्रभावशाली है कि इन दोहों को उच्च कोटि का काव्य मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता।
जैन साहित्य में संस्कृत साहित्य की तरह ही एक समृद्ध स्रोत साहित्य भी मिलता है। २४ तीर्थंकरों की स्तुति जैन मुनियों के षट्कर्मों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती है। इन स्तुतियों में एक रूपता है किन्तु इन्हें भक्तिभावपूर्ण मुक्तक रचनाओं के रूप में देखना उचित होगा तथा प्रभाव की दृष्टि से भी ये उसी स्तर की संस्कृत में दिखाई पड़ती है अथवा परवर्ती हिन्दी कवि तुलसीदास की रचनाओं में जैन साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिस काव्य विधा का विकास हुवा वह चरित काव्य है जिसे प्रबन्ध अथवा महाकाव्य कहा जा सकता है । कदाचित् भारतीय साहित्य के प्राचीनतम महाकाव्यों में विमलसूरि का पद्मचरिउ (पद्मचरित ) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि रामकथा को आधार बनाकर जितने काव्य लिखे गये हैं उनमें प्राचीनतम वाल्मीकि रामायण, महाभारत का रामोपाख्यान कुछ बौद्ध जातक कथाएं और विमल सूरि का पद्म चरिउ ही है । इनमें महाकाव्य के स्तर पर वाल्मीकि रामायण और पद्म चरिउ ही दिखाई पड़ते हैं । पद्मचरिउ में प्राप्त रचना तिथि के अनुसार यह रचना तीन से सात ईस्वी की ठहरती है । वाल्मीकी रामायण के संबंध में ऐसा ठोस आधार नहीं जिससे हम उसकी तिथि का निर्भ्रान्त निश्चय कर सकें। अधिकांश विद्वान उसे दूसरी ईस्वी से लेकर चौधरी तक विकसित होने वाली रचना मानते हैं इस तथ्य को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि पद्मचरिउ वह प्राचीनतम रामकथा पर आधृत महाकाव्य है जो अपने मूल रूप में सुरक्षित है। इसकी भाषा को देखकर पाश्चात्य विद्वानों ने ऐसी शंका की है। कि यह रचना उतनी प्राचीन नहीं हो सकती जितनी उसमें दी हुई तिथि से प्रमाणित होती है इस आपत्ति के साथ उसमें प्रयुक्त शब्दों छन्दों आदि के आधार पर इसे चौथी शताब्दी की रचना मानने का सुझाव दिया गया है। किसी भी स्थिति में यह राम काव्य की ऐसी धारा की ओर संकेत करती है जो वाल्मीकि को प्राप्त धारा अथवा बौद्धों को प्राप्त धारा से भिन्न थी । इसकी कथा संयोजना एवं चरित्र विधान पूरा का पूरा ऐसा है जिसे किसी अन्य स्रोत से विकसित मानना ही उचित होगा । विमलसूरि ने यह कहा है कि मैं उसी कथा को कह रहा हूं जो उन्हें पूर्ववर्ती आचार्यों से प्राप्त थी। यह तथ्य भी इस बात की ओर संकेत करता है कि जैन रामायण संस्कृत रामायण की तुलना में उसके समकक्ष ही ठहरती है और यह मानना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता कि वाल्मीकि रामायण से ली गई है ।
रामकथा कहने की यह प्रवृत्ति जैन साहित्य में लगातार बनी रही। यह प्रवृत्ति दो भागों में बंडी दिखाई पड़ती है, एक के अनुसार इस कथा को स्वतंत्र महाकाव्य का आधार बनाया गया है।
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विमलसूरि का प्राकृत में पउम चरिउ एवं रविषेण का संस्कृत में पदमचरित तथा स्वयं का अप्रभ्रंश में पदम चरिउ इसी प्रवृत्ति के परिचायक हैं ।
दूसरी प्रवृत्ति यह रही है कि
पुरुषों में से
राम को एक पुरुष मानकर उनकी कथा पुराणों के अन्तर्गत रखी गई है। पुराणों में जो कथानक स्वीकार किया गया है वह इन महाकाव्यों के कथानक से कुछ भिन्न है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त का उत्तर महापुराण दृष्टव्य है । संस्कृत में लिखी उत्तर पुराणों में भी महाकाव्यों से भिन्न कथा ही अपनाई गई है। यह विचारणीय विषय है कि इन दोनो प्रकार की कथाओं का मूल स्रोत एक ही अथवा भिन्न । वस्तुतः संस्कृत की रामायणों तथा जैन रामायणों और बौद्ध रामकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन इस दृष्टि से बहुत रोचक हो सकता है कि इनका मूल स्रोत क्या था और उसमें क्रमिक परिवर्तन तथा परिवर्धन किस तरह होता रहा ।
राम काव्य के अतिरिक्त कृष्ण काव्य को भी जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। हरिवंशपुराण के नाम से ये रचनायें संस्कृत और अपभ्रंश में मिली हैं। इस कथा का भी तुलनात्मक अध्ययन अन्य पुराणों के साथ करके रोचक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- विशेषकर मूल स्रोत और क्रमिक विकास के संबंध में ।
किन्तु इन दोनों चरित काव्यों के अतिरिक्त अन्य त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों के चरित्र पुराणों में तथा स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में भी मिलते हैं। इन सभी प्रबन्धों में छन्द, भाषा, अलंकृति एवं भावाभिव्यक्ति साहित्य के उच्च स्तर पर ही हुई है। महापंडित राहुल ने स्वयं के पउमचरिउ की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हुए यहाँ तक कहा है कि वह रचना काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से तुलसी के रामचरित मानस से कहीं आगे है। किसी विद्वान ने विमलसूरी की रचना के संबंध में इस तरह की बात नहीं कही है किन्तु प्राकृत में जो ग्राम्य नायिका जैसी छटा है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अपनी कोमलता और माधुर्य के लिए यह रचना अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानती। हिन्दी में यह धारा आई तो नहीं हिन्दी के प्रबन्धों की रूप रचना का आदर्श यही रचना में रहा है इसमें सन्देह के लिए तनिक भी अवकाश नहीं है।
प्रबन्धों के अतिरिक्त गेय मुक्तकों एवं गीतों की परम्परा भी जैन साहित्य में अत्यन्त समृद्ध दिखाई पड़ती है। गेय मुक्तकों में वज्जालग उसी प्रकार की रचना है जिस प्रकार की गाथा सप्तशती । गीतों का विकास इसके परवर्ती अपभ्रंश में ही दिखाई पड़ता है जिससे यह ज्ञात होता है कि परवर्ती अपभ्रंश साहित्य में जैन मुनियों का ध्यान आकृष्ट होने लगा था । फागू काव्य अलंकार और रस की दृष्टि से वैभवपूर्ण एवं गीत कथा प्रबन्ध दोनों के तत्वों को समन्वित किये हुए है, हिन्दी में ये दोनों प्रवृत्तियां आई हुई प्रतीत होती हैं । बज्जालग प्रवृत्ति दोहो में सुरक्षित है जिसका चरम विकास बिहारी सतसई में दिखाई पड़ता है। गीत और प्रबन्ध को मिलाने की प्रवृत्ति कृष्ण भक्ति शाखा के अधिकांश कवियों में है तथा तुलसी की गीतावली इस प्रवृत्ति के आदर्श रूप में देखी जा सकती है। ( शेष पृष्ठ १११ पर)
राजेन्द्र-क्योति
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