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बौद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारंभिक बौद्ध दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिये निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
१. निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह तृतीय आर्य सत्य कैसे होता ? क्योंकि अभाव आर्यचित्त का आलंबन नहीं हो सकता।
२. तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत् नहीं है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा?
३. यदि निर्वाण मात्र अभाव है तो उच्छेद दृष्टि सम्यक् दृष्टि होगी--लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेद दृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहा है।
४. महायान की धर्मकाय की धारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलय-विज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक अवस्था के विपरीत पड़ते हैं । अतः निर्वाण का तात्विक स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है । उसे अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है । लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, अभाव मात्र है फिर भी सद्भूत है, उसे आरोग्य कहते हैं। उसी प्रकार का तृष्णा अभाव भी सद्भूत है, उसे सुख कहा जाता है । दूसरे उसे अभाव इसलिये भी कहा जाता है कि साधक में शाश्वतवाद को मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो। राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अतः) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता इसी दृष्टिकोण के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है । निर्वाण राग का, अंह का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं.या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता। निर्वाण की अभावात्मक कल्पना अनत्त का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है । बौद्ध दर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है।
अनात्म का उपदेश आसक्ति (ममत्व बुद्धि) के प्रहाण के लिये, तृष्णा के क्षय के लिये है । निर्वाण "तत्व" का अभाव नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं । अनत्त (अनात्मा) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके । सभी अनात्म हैं इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है । क्योंकि जहाँ मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है। स्व की पर में अवस्थिति होती है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पत्न होती है । लेकिन यहीं आत्मदृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एवं तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है वही राग है और जो राग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अत्ता) भी नहीं होता । बौद्ध निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इम अपनेपन का अभाव है, वह तत्व का अभाव नहीं है वस्तुतः तत्व लक्षण की दृष्टि से निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है। अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्ष दत्त की यह मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है । यद्यपि बौद्ध निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है फिर भी भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिये प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जब कि निर्वाण तो पक्षातिक्रान्त है । निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिये किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति आवश्यक नहीं होती अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचनशैली ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है । वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है।
(अपरिग्रह : एक अनुचिन्तन......पृष्ठ ४० का शेष) सकता है । बलप्रयोग से नहीं परन्तु स्वेच्छापूर्वक संग्रहित वस्तु तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन एवं असहाय न रहे । भगवान् का योग्य वितरण करना ही अपरिग्रहवाद है। आज की सुख- महावीर का यह अपरिग्रह सिद्धान्त ही मानव जाति का कल्याण सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों पास एकत्र हो गई हैं और शेष समाज कर सकता है । भूखी जनता के आँसू पोंछ सकता है । यह सिद्धान्त अभावग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति हो रही है और न आधुनिक युग की ज्वलंत समस्याओं का सामयिक सर्वोत्तम समाआध्यात्मिक । सब ओर भुखमरी की महामारी जनता का सर्वग्रास धान है। विश्व शान्ति के लिये इससे बढ़ कर और कोई साधन करने के लिये मह फैलाये हुवे है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल नहीं है। उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा की सामग्री रहे
वी.नि.सं. २५०३
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