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दूसरे खिलाड़ी की ओर नहीं फैके तो खेल बन्द हो जाता है, वैसे ही कुछ लोगों द्वारा धन-वैभव पर अधिकार कर लेने से समाज में समता समाप्त प्रायः हो गई है और विषमता बढ़ गई है। एक वर्ग अतिसुख से पीड़ित हुआ तो अन्य वर्ग दुख से पीड़ित हुआ । इस स्थिति में आवश्यक है कि अपनी आवश्यकतायें कम से कम हों और संचित द्रव्य का देश और समाज के हित में दान हो, ताकि वैभव के लिए आक्रमण न हो, हिंसा न हो । धनिक धन का त्याग कर उसकी रक्षा से निश्चिन्त होगा और निर्धन धन पाकर अपेक्षाकृत सुखमय जीवन व्यतीत कर सकेगा। अपरिग्रह की भावना के विकास से ही सामाजिक मूल्यों का पुनरुत्थान होगा, और सभी सही अर्थों में अपने को सामाजिक प्राणी समझ सकेंगे । अपरिग्रह ही वह भगवान् है जिसे जीवित ईश्वर होने का सौभाग्य दिया जा सकता है । इससे ही सृष्टि आनन्दित होगी।
कर्मों का फल तो मिलता ही है, हाथ पर आग रखें तो गर्मी का अनुभव होगा। हाथ पर बरफ रखें तो शीतलता का अनुभव होगा । इसी प्रकार श्रेष्ठ कार्य करें तो चित्त उल्लसित होगा और वित्त सफल होगा, पर निकृष्ट कार्य करें तो मन खिन्न होगा और धन तथा श्रम एवं समय निष्फल होगा । हम जैसा भी काम करेंगे, वैसा फल हमें अवश्य मिलेगा। हम कर्म करें और दूसरे फल पावें या दूसरे कर्म करें और हम फल पावें, ऐसी मान्यता न्याय और नीति, लोक व्यवहार और धार्मिक-सामाजिक विचार से विरुद्ध है । इसलिए जहाँ तक हो सके वहाँ तक उत्कृष्ट कार्य करने के लिए ही पर्याप्त उत्साह दिखलाया जावे पर निकृष्ट काम करने के लिए उदासीनता-उपेक्षा बतला कर अपने लिए अकारण असमय उत्पन्न होने वाली उद्विग्नता से बचा लिया जावे । कर्म का फल अतीव प्राकृतिक और सुनिश्चित है । जैसे सहस्र कलियों वाले कमल की प्रत्येक कली प्रथम और सहस्रवी है, वैसे ही संसार के प्रत्येक धर्म और दर्शन के आराधक की बात में सत्यांश है, परन्तु जैसे एक ही कली पूर्ण सहस्रदल कमल नहीं है, बल्कि पूर्ण कमल बनने के लिए अन्य कलियाँ भी साथ लिये है वैसे ही सभी व्यक्तियों की बातों में सत्यांश तो सम्भव है, पर पूर्ण सत्य नहीं । पूर्ण सनातन शाश्वत सत्य की उपलब्धि तो अन्य जनों की बातों की भी स्वीकृति देने से होगी केवल अपनी बात का बतंगड़ बनाने से नहीं । पर्याय की दृष्टि से जीव अनित्य है, यह क्षणिकवादी बौद्ध दृष्टि सही है और द्रव्य दृष्टि से जीवात्मा नित्य है, यह प्रकृतिपुरुष तत्ववादी सांख्यिकी दृष्टि भी सही है, परन्तु जीव आत्मा न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, बल्कि जीव कथंचित् (किसी दृष्टि से) नित्य और कथंचित् अनित्य है । स्यात् (अन्य का भी अस्तित्व सूचक) वाद (विचार-धारा) में दोनों ही नहीं, बल्कि अनेक दृष्टियों का समावेश है, अतएव यह सर्वोपरि शीर्षस्थ है और दार्शनिक सरोवर का एक ही सहस्रदल कमल है । स्याद्वाद मूलक दृष्टि लिए रहने से ही समाज में एक व्यक्ति अनेक सम्बन्ध स्थापित करके पूर्णतया सफलीभूत सामाजिक बना है ।
विश्व को बनाने वाला ईश्वर है, इस कथन की अपेक्षा यह कहना अधिक सही है कि हम सभी ईश्वर के अंश हैं, और मन्दिरों
के ईश्वरों (भगवान की मूर्तियों) को हमने ही इसलिये बनाया है कि हम अंश अंशी (अनेक अंशों वाले ईश्वर-पूर्ण) बन सकें । जैसे एक बीज समुचित वातावरण में विकसित होकर अनेक बीजों को जन्म और जीवन देने में सक्षम है, वैसे ही ईश्वर-अंश जीवात्मा स्वयं भी सुविकसित हो कर ईश्वर (आत्मिक गुण सम्पन्न व्यक्ति) बन सकने में सक्षम है, और कृतकृत्य सिद्ध होकर सर्वदा के लिए संसार से अदृश्य होने में समर्थ है । ऐसी मान्यता में यह प्रश्न भी उत्पन्न नहीं होता कि यदि विश्व को ईश्वर ने बनाया तो ईश्वर को किसने बनाया । दूसरे ने बनाया तो उसे किसने बनाया । जो अनवस्थादोष हो ।
हम ही सुखी न हों, बल्कि संसार के सभी प्राणी सुखी हों। इस सद्भावना और शुभकामना के सृजन के लिए भी हमें अहिंसा और अपरिग्रह मूलक बातों पर विशेषतया दृष्टिपात करना होगा। सदभावना और शुभकामना की सैद्धान्तिक सक्रियता-सार्थकता अहिंसा और अपरिग्रह मूलक प्रयोगों पर ही सफलता देगी। विश्वबन्धुता की सुरक्षा के लिए जिओ और जीने दो के सन्देश को मानवता की परिधि से बढ़ा कर विश्वबन्धुता तक पहुंचाना ही होगा । यह इसलिए कि जितने भी जीव हैं, वे सब जीवन में जीना चाहते हैं, मरना नहीं, सभी को प्राण प्रिय हैं, अतएव उन्हें जीने देना चाहिए, मारना नहीं चाहिए ।
यदि आज महावीर होते तो वे हिंसकों से कहते-दूसरों को मारने से पहले जरा स्वयं तो एक बार मर कर देखो तो पता चले कि मरने में कितना कष्ट होता है। यदि आज महावीर होते तो वे शोषकों से कहते-दूसरों का शोषण करने से पहले जरा स्वयं तो शोषित होकर देखो। यदि आज महावीर होते तो वे कर्मफल के अविश्वासियों को अनेक युक्तियों से समझाते-संसार की विषमता के मल में व्यक्तियों के कर्मों और फलों की विषमता व्याप्त है । यह आँखों आगे प्रत्यक्ष देख लेख कर ही कर्म-फल के रहस्य को समझलो । यदि आन महावीर होते तो धर्म और दर्शन के नाम पर अपनी ही डींग हांकने वालों से कहते-तुम्हारी बात इस दृष्टि से सही है और उसकी बात इस दृष्टि से सही है। इसलिए विरोध का नहीं समन्वय का मन्त्र सीखो और बह अनेकान्त है। यदि आज महावीर होते तो अनन्य ईश्वरवादियों से कहते-जब शिशु विकसित होकर वृद्ध बन सकता है, तब जीवात्मा (जो ईश्वर का अंश है) वह परमात्मा क्यों नहीं बन सकता है? यदि आज महावीर होते तो वे जीव-दया के सन्दर्भ में कहते-जो भी जीवधारी है, जीवन लिये जीता है उसे अपना जीवन संसार की सभी वस्तुओं से भी अधिक प्रिय है, अतएव अपनी भाँति उसे जीने दो। यदि उसे विपत्ति से नहीं बचा सको, तो मत बचाओ पर अपने सुखस्वाद के लिए उसे दुख भी तो मत पहुंचाओ । यदि आज महावीर होते और उन्हें बढ़िया भोजन, बढ़िया वस्त्र, बढ़िया बंगला, बढ़िया आजीविका, बढ़िया सम्मान श्रद्धा से देते तो वे कहते-जब तक संसार का एक भी व्यक्ति भूखा है, एक भी व्यक्ति नंगा है, एक भी व्यक्ति मकान-विहीन है, एक भी व्यक्ति बेकार है, एक भी व्यक्ति
राजेन्द्र-ज्योति
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