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________________ महावीर की महिमा लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' वतमान में महावीर नहीं हैं, पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का सूचक उनका जीवन-चरित्र व उनका प्रांजल परिष्कृत स्वर्णोपदेश आज भी उपलब्ध है, उनके अनेक अनुयायी भी हैं, जो महावीर जयन्ती और महावीर-निर्वाण-दिवस बड़े उत्साह से मनाते हैं, तथा २५०० वें महावीर निर्वाण वर्ष समारोह के सन्दर्भ में तो वे महावीर के प्रति व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों रूपों में अपेक्षाकृत कार्य भी कर के दिखा चुके हैं। समणसुत्त का प्रकाशन, एक ध्वज का अवतरण, अनेकानेक स्मारिकाओं, स्मृति-ग्रन्थों का प्रकाशन, उत्सव की ऊर्जा के सूचक विविध धार्मिक-सामाजिक आयोजन आज भी प्रेरणादायक बने हैं, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझा जावे कि अब कुछ करना शेष नहीं रहा, जबकि अभी तो कार्य का श्रीगणेश ही हुआ है । महावीर ने जो कुछ कहा और जो कुछ किया, वह केवल एक युग और एक देश के लोगों के लिए नहीं था, उनके कार्य, उनके दिव्य सन्देश प्राणिमात्र के लिए हैं, उनकी धर्म-सभा में (समवशरण में) पुरुष और स्त्री, पशु और पक्षी, राजा और रंक, ऊँच और नीच सभी समान रूप से स्थान पाते थे, सभी का अपनी शंका के समाधान का स्वर्ण अवसर सुलभ था । महावीर ने अपने जीवन-काल के ७२ वर्षों में वह कार्य किया. जिससे मानवता को आधार मिला, और विश्व के व्यक्तियों को विश्वसनीयता की उपलब्धि हुई। परमार्थ में भी स्वार्थ को लेख कर विश्वबन्धत्व को अपने में सीमित या कैद किया जा रहा था । महावीर ने देखा कि धार्मिक-सामाजिक, आर्थिक-राजनैतिक सभी क्षेत्रों में उतना सुधार आवश्यक है कि जितना भी शक्य और सम्भव है। इसलिए उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता और साहसिक आवश्यकता का महत्व समझाया। अहिंसावाद और अपरिग्रहवाद, कर्मवाद और स्याद्वाद, अनीश्वरवाद और विश्वबन्धुत्ववाद द्वारा महावीर ने संसार के समस्त प्राणियों के लिए सुख-शान्ति, सन्तोष और समृद्धि का सन्देश दिया था। जब सभी प्राणियों को प्राण प्रिय हैं और हम किसी को प्राण दे नहीं सकते हैं, तब हमें उनके प्राण लेने का भी क्या अधिकार है? क्या हमने मन और मति इसलिए पाई कि दुर्बलों के साथ अन्याय करें, उन्हें मार डालें, उन्हें सुख से जीने नहीं दें, और तो और धर्म के नाम पर यज्ञ की आड़ में अश्व और अज तथा मनुष्य की भी बलि दें? यह तो प्रत्यक्ष हिमालय-सा सुस्पष्ट अधर्म है । इससे नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है, अतएव अहिंसा की ही आराधना हो हिंसा की नहीं, 'जिओ और जीने दो' की भावना ही जीव मात्र के लिए कल्याणकारी है। अहिंसा ही वह भगवती है जिसे जगन्माता का गौरव दिया जा सकता है। महावीर जिन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए, उनमें एक ओर हिंसा का बोलबाला था और दूसरी ओर अमित वैभव और विलास का आयोजन था। एक ओर कर्म के फल को अस्वीकृति दी जा रही थी तो दूसरी ओर अपनी ही बात को सूर्य सत्य घोषित किया जा रहा था । सृष्टि के एक जनक को स्वीकार कर स्वयं के ईश्वर होने की बात सर्वथा भुलाई जा रही थी, और दूसरे के, जीवन की भाँति धन-वैभव-विलास भी संसारियों को प्रिय है। धर्म-ग्रन्थों में धन को ग्यारहवां प्राण कहा गया । धन, सुखमय जीवन के लिए सभी को काम्य है पर संसार में इतना धनवैभव ही नहीं है कि उससे एक व्यक्ति की भी अभिलाषाएँ पूर्ण की जा सके। इसलिए सभी की अभिलाषायें पूर्ण होना असम्भव दुस्साध्य हो गया। कतिपय समाज के विशिष्ट श्रेष्ठ कहे जाने वाले लोगों ने लक्ष्मीदेवी बनाम धनदेव को अपनी तिजोरियों में बन्दी बना लिया। जैसे खेल में एक खिलाड़ी गेंद पकड़ ले और वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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