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धन्य धनचन्द्रसूरि
रमणीय राजस्थान प्रदेश ।
रणबां के रणवीरों की जन्म भूमि । जहां एक से एक बढ़ने वाले रणवीर उत्पन्न हुए । कर्मवीर प्रकट हुए ।। और धर्मवीर भी प्रकाशमान हुए।।।
प्रकाश जैसे रणवीरों ने क्षत्र तेज का प्रकाशन किया और भारतीय संस्कृति की रक्षा की । भामाशाह जैसे कर्मवीरों ने राष्ट्र, समाज के चरणों में तन, मन, धन अर्पण करके युग और इतिहास को उज्ज्वल कर दिया।
और
आचार्य श्रीमद् विजय हरिभद्रसुरिजी और सिद्धर्षिगण जैसे धर्मवीरों ने सिद्धान्तों का अवगाहन करके धर्म का प्रचार किया, त्यागमार्ग को सुशोभित किया । साहित्य जगत को विकसित किया और मानवीय गुणों की सुरक्षा की।
इस धरा पर कितने ही देहधारी मानवी आये और गये किन्तु मात्र अंगुली पर गिने जाने वाले बहुत ही अल्पमानवी सर्वदेशीय . प्रसिद्धि को प्राप्त कर सके हैं।
सुदीर्घ प्रस्तराच्छादित पर्वतावली, सघन जंगल और मखमल सी सुकोमल धूलि से यह धरा देश विदेश में अपना अस्तित्व स्थित किये हुए है।
चित्तौड़, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, भीनमाल, सांचोर, जालोर, माण्डवपुर, नाकोडाजी, जीरावाजी, नाडोल, नाडुलाई, रातामहावीर, जाकोडाजी आदि पुनीत तीर्थभूमियां धर्मध्वजा फहराती हुई उन्नत मस्तक खड़ी दिखती हैं।
अनेक गांव नगरों में "किसनगढ़" भी प्रसिद्ध नगर था ।
जहां एक धर्ममूर्ति श्रेष्ठिवर्य रहते थे। भाग्यवन्त ऋद्धिकरणजी था उनका नाम । उनकी धर्मपत्नी थी सौभाग्यवती अचलादेवी । गोत्र था कंकु चौपड़ा। पति ऋद्धिकरण और अर्धागना अचला। कैसा सुन्दर सम्मिलन हुआ था।
दम्पत्ति की जोड़ अजोड़ थी । सुख और शांति से अपने जीवन को आराधना से उज्ज्वल बना रहे थे ।
अमनचैन था वातावरण और खशनमा था उभय का संसार । असार संसार में से भी सार ग्रहण के इच्छक कहां सार ग्रहण नहीं कर सकते? जल, दूध के संमिश्रण में से हंस दुग्धपान ही तो करता है।
दिवस व्यतीत हो रहे थे।
एक दिन ऐसा आया जो चिरस्मरणीय हो ऐसा । इतिहास के पृष्ठों पर लिखा जाय ऐसा ।। विक्रम सं. १८९६ चैत्र सुदी ४ का दिन ।
आज के दिन अचला देवी की कुक्षि से एक पुण्यात्मा ने जन्म लिया । प्रसन्नता के समाचार एक एक से आगे प्रसरित हुए । यद्यपि इस संतान के पूर्व सेठ ऋद्धिकरणजी के यहां एक पुत्र एवं एक पुत्री विद्यमान थे फिर भी इस बालक के जन्म से न जाने सभी के हृदय में उमंग और उल्लास अधिक प्रतीत हो रहा था।
संबंधीजनों ने मिलकर नाम दिया "धनराज" ।
धर्म संस्कारों की ऋद्धि के कारक "ऋद्धिकरणजी" पिता और संस्कारों की सदा के लिये अचल छाप करने वाली माता अचलादेवी के लालन पालन में बालक धनराज प्रति दिन बढ़ते गये।
वी. नि. सं. २५०३
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