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सुडौल शरीर और भव्य सजा में भविष्य के चित्र अवस्थित थे। धीरे-धीरे पैर रखते धनराज कुछ बोलना सीखे। माता-पिता ने एक दिन शुभ समय पर उन्हें पढ़ने के लिये स्कूल में दाखिल किया ।
अध्यापकों को बालक का अनुभव होता गया और बालक धनराज अपनी अनोखी प्रतिभा से शिक्षकों के प्रियपात्र बन बैठे
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पुण्य का उदय । चरित्र की आराधना और अनुकूल सुयोग । ये सब जब इकट्ठे हो जाते हैं तब विचार और प्रवृत्तियां अपना मार्ग आप ही खोज लेती हैं और निर्णय ले लेती हैं ।
अभ्यास करते करते धार्मिक ग्रंथों का पठन और श्रवण भी प्रारम्भ रखा। अनेक दुखों से परिपूर्ण इस संसार में कोई भी जीव सुख या शांति प्राप्त कर ही नहीं सका है। जो भौतिक का त्याग करता है उसे ही आध्यात्मिकता की प्राप्ति होती है। इन सभी विचारों के कारण धनराज का मन संसार भाव से विरक्त होकर संवेग के रंग में रंगा जा रहा था ।
देवसूरगच्छीय धानेरा की श्री पूज्य गद्दी के यतिवर्य श्री लक्ष्मी विजयजी का जागृत हृदय धनराज को सुयोग मिला। वासना पर विजय प्राप्त करके आत्म परिणाम त्याग के राग में अधिक बुढ़ बने ।
जिसे जो इष्ट होता है, समय आने पर वह उसे प्राप्त हो ही जाता है । पुरुषार्थ और प्रारब्ध दोनों अपने आप में अकेले कुछ नहीं कर सकते । पर जब दोनों ही मिल जाते हैं तब व्यक्ति की आकांक्षा किसी दिन अधूरी नहीं रहती ।
यतिवर्य श्री लक्ष्मीविजयजी के सदुपदेश के प्रभाव से पुण्यवान अपने निर्णय में विशेष दृढ़ बने और अन्त में सर्वसम्मति से संवत् १९१७ वैशाख शुक्ला ३ के दिन धानेरा में यतिवर्य श्री लक्ष्मीविजयजी के पास धनराज ने यतिदीक्षा अंगीकार की। भाई धनराज अब बने-यतिवर्य श्री धनविजयजी ।
संस्कृत एवं प्राकृत का गहरा अध्ययन किया । न्याय और तर्क में अपूर्व सिद्धि प्राप्त की । सैद्धांतिक और आगमिक ज्ञान भी विशाल रूप में प्राप्त किया ।
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अब जरूरत थी दार्शनिक और परमागम का ज्ञान प्राप्त करने की । इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्री धनविजयजी कटिबद्ध बने उस समय दफतरी यतिश्रेष्ठ श्री रत्नविजयजी (श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज) आहार की गड़ी के पूज्य श्री प्रमोद सूरीश्वरजी के प्रधान शिष्य थे। वे धीरविजयजी, प्रमोदरुचिजी आदि अनेक यतियों को आगमिक गहन अध्ययन और अथ से इति तक बोध कराते थे। उन्हीं के प्रभाव से श्री धीरविजयजी श्री पूज्य पदवी प्राप्त करके श्री धरणेन्द्रसूरिजी बने थे ।
श्री धनविजयजी की भावना उन्हीं के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रबल बनी। वे श्री दफतरी श्री रत्नविजयजी महाराज के पास अभ्यास करने के लिए पहुंच गये ।
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कई यति आगम का अध्ययन सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम रूप से करते थे, कई न्याय और तर्क का अभ्यास करते थे तो कई ज्योतिष और काव्यालंकार में प्रगति करते थे। श्री घनविजयजी आगम के अध्ययन में जुट गये 1
सबके सब विद्यार्थी प्रथम नम्बर में उत्तीर्ण नहीं होते, उसी प्रकार यतिओं में भी मंद, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम बुद्धि वाले यति थे ।
अध्ययन के दौरान श्री धनविजयजी दफतरी श्री रत्नविजयजी से बार बार पूछते-- महाराज श्री ! दशवेकालिक में विवेचित साध्वाचार के अनुसार अपना आचरण तो नहीं है। क्या वह विवेचन सिर्फ ग्रंथों के पृष्ठमात्र भरने के लिए ही है या हम लोगों के लिए भी है ?
और भी सुनिए पूज्य श्री ! आचारांग के आदेश और अपने आचरण में क्या रात और दिन का अन्तर नहीं है ? फिर क्या वह केवल पठन मात्र के लिए ही है या व्यवहार में लाने के लिए भी है ?
स्वामिन् । त्याग और राग दोनों में मानो उन्मेद हो गया है। ऐसा आपको महसूस नहीं होता ? क्या हम लोग राग के त्यागी होने के बदले राग के रागी नहीं बने हैं? आप जो अध्यापन कराते हैं वह कुछ और है और जो हम आचरण में लाते हैं वह कुछ और ही है। यह कैसी विसंगति है ?
ये बातें सुनते ही पूज्य श्री बोले-
धन्य धनविजयजी । लगता है, तुम्हें भी वर्तमान स्थिति अखरने लगी है। मैंने तो पहले से ही निर्णय कर लिया है कि समय आते ही क्रियोद्धार करना है और इस सीमातीत शिथिलता को दूर करना है ।
महाराज श्री ! यदि आप विशुद्ध साधु जीवन जीने के विचारों दृढ़ हैं तो मैं भी आपके ही मार्ग का अनुसरण कर आपका चरणकिंकर बना रहूंगा ।
घाणेराव के विजयजी
इस प्रकार देखते-देखते कुछ वर्ष बीत गए । चातुर्मास में भी पूज्य धरेन्द्रसूरिजी और दफ्तरीजी में वाद विवाद हुआ। मतभेद के कारण रत्नविजयजी अपने गुरु के पास गये । श्री प्रमोदसूरिजी ने उन्हें श्री पूज्यपद प्रदान किया । इस प्रकार श्री रत्नविपी श्री पूज्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज बने ।
यदि परम्परा की घोर शिथिलता को हटाने के लिए श्री पूज्य के पास कलमनामा मंजूर कराकर संवत् १०२४ में जावरा (म. प्र. ) में उन्होंने क्रियोद्वार किया। उन्हीं के हाथ से यतिवर श्री धनविजयजी, श्री प्रमोदरुचिजी आदि कई यतियों ने क्रियोद्वार किया और उनको गुरु के रूप में स्वीकार किया ।
अब मुनिराजजी श्री धनविजयजी महाराज उत्कृष्ट क्रियापालक बने । सद्गुरु के आश्रय में विशुद्ध चारित्र पालन में दृढ़ बनते गये । प्रथम चातुर्मास खाचरोद (म. प्र. ) में गुरुदेव के साथ
राजेन्द्र ज्योति
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