SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं हैं। यदि तुम्हारे मन में भगवान के वचनों में आस्था है, प्रशम है, भाव है और कषाय का उपशम भाव है तो समझ लो कि तुम भव्य हो, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है। इसके विपरीत यदि इतनी लम्बी साधना के बाद भी तुम्हारे जीवन में यह सब कुछ नहीं है, तो तुम अभव्य हो। भव्य-अभव्य का निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता, स्वयं अपनी आत्मा ही कर सकती है। मैं भव्य हूं अथवा अभव्य हूं यह जानने के पहले यह जानो कि मेरे जीवन में शान्ति और संतोष आया है अथवा नहीं । अन्तरचेतना को जगाने का प्रयास करो। शून्य मन से की जाने वाली साधना वस्तुतः साधना नहीं है। कुछ विचारक इस प्रकार भी सोचा करते हैं कि कहां अनन्त जन्मों के अनन्त कर्म और कहां इस छोटे से जीवन की छोटी-सी साधना। भला, अनन्त जीवन के अनन्त कर्म एक जीवन में कैसे क्षय किये जा सकते हैं ? जो लोग इस प्रकार सोचा करते हैं, मेरे जीवन में उन लोगों के सोचने का यह स्वस्थ तरीका नहीं है। मैं पूछता हूं, कि किसी पर्वत की एक ऐसी गुफा है जिजमें हजारों वर्षों से अंधकार रह रहा है, किन्तु ज्यों ही उस गुफा में दीपक की ज्योत जलाई कि हजारों वर्षों का अंधकार एक क्षण मात्र में ही विलुप्त हो जाता है। जरा विचार तो कीजिये कहां हजारों वर्षों का अंधकार और कहां एक नन्ही-सी दीपक-ज्योति । वस्तुतः जैसा कि मैंने आपको पहले कहा था कि प्रकाश के समक्ष खड़े रहने की शक्ति अंधकार में हो ही नहा सकती। इसी प्रकार आत्म-जागरण की ज्योति प्रकट होते ही अनन्त-अनन्त जन्म के कर्म भी क्षण भर में ही नष्ट हो सकते हैं। इसमें जरा भी संदेह की बात नहीं है। गजसुकुमार ने कितने जन्मों के कर्मों को अल्पकाल की साधना से ही नष्ट कर दिया था। अर्जुन मालाकार के कर्म कितने घोर थे, केवल अल्प साधना से ही उसने अपने कर्मों को कितनी तीव्रता के साथ नष्ट किया। मानव मन के किसी भी परापेक्षी विकल्प में यह शक्ति नहीं है कि आत्मा के स्वोन्मुखी संकल्प के सामने वह खड़ा रह सके। कर्म कितना ही प्रबल क्यों न हो, वह कितना भी पुराना क्यों न हो, किन्तु आत्म-जागरण की ज्योति के समक्ष वह टिक नहीं सकता है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। उसमें परमात्मा होने की भी शक्ति है, किन्तु तभी जबकि उसे अपने पर विश्वास हो, अपनी शक्ति पर आस्था हो, अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ में निष्ठा हो। कर्म बलवान है, यह सत्य है, क्योंकि तभी तो वे जीव को नाच नचाते हैं। पर याद रखिये, कर्म को उत्पन्न करने वाला यह आत्मा ही है। आत्मा की शक्ति के समक्ष कर्म की शक्ति अवश्य ही हीन कोटि की है। आत्मा में अपने आपको बाँधने की शक्ति भी है और इस आत्मा में अपने को मुक्त करने की शक्ति भी है। आत्मा न जाने कितनी बार नरकों में गया और न जाने कितनी बार स्वर्गों में गया, तथा न जाने कितनी बार यह पशु-पक्षी बना और न जाने कितनी बार इसने मानव तन पाया। जन्म और मरण का यह खेल आज का नहीं, अनन्त अनन्त काल का है। इस खेल को बनाने वाला भी आत्मा है और इस खेल को मिटाने वाला भी यह आत्मा ही है। जब यह आत्मा अज्ञान और मिक्ष्यात्व आदि विकल्पों से अभिभूत हो जाता है, तब वह अपने स्वरूप को भूल बैठता है। अपने स्वरूप को भूल बैठना ही सारी बुराइयों को जड़ है। आत्म-स्वरूप को समझना यही हमारी साधना है। जब तक साधक अपने आपको नहीं समझता है, तब तक न वह अपने मन के विकल्पों पर विजय प्राप्त कर सकता है और न वह कर्म की घनघोर घटाओं को ही छिन्न-भिन्न कर सकता है। प्रत्येक साधक के हृदय में यह दृढ़ विश्वास होना ही चाहिये कि मैं अनन्त शक्ति संपन्न हूँ। और मुझमें आज से नहीं, अनन्तकाल से अनन्त शक्ति रही है। प्रश्न शक्ति प्राप्त करने का नहीं है, वह तो आज से क्या, अनन्त से ही प्राप्त है। मुख्य प्रश्न है, उस शक्ति के जागरण का। आत्म-शक्ति के जागृत होते ही कर्म छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। जैन दर्शन में कर्म के संबंध में जो कुछ कहा गया है और जो कुछ लिखा गया है, उसे इस लेख में पूरी तरह बताना कदापि संभव नहीं है। फिर भी मैं संक्षेप में आपको यह बतलाने का प्रयत्न करूंगा कि जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप क्या है और कर्म का फल कर्म करने वाले आत्मा को किस रूप में मिलता है। इस संदर्भ में यह बात भी विचारणीय है कि आत्मा कर्म कैसे बांधता है और किस साधना के द्वारा उससे कैसे विमुक्ति प्राप्त कर सकता है। कर्म के सम्बन्ध में जितना मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और दार्शनिक चिन्तन जैन-दर्शन के ग्रन्थों में किया गया है, वह विश्लेषण और चिन्तन अन्यत्र आपको इस रूप में उपलब्ध नहीं हो सकेगा। कर्म को परिभाषा कर्म की परिभाषा करते हए कहा गया है कि आत्म-सबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है और द्रव्य कर्म के बन्ध के हेत रागादि भाव, भाव-कर्म माना गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने अपने स्वरचित कर्म-विपाक ग्रंथ में कर्म का स्वरूप बतलाते हुवे कहा है-- "कीरह जीएण हेउहि, जेणं तो भण्णए कम्म" कर्म का यह लक्षण द्रव्य कर्म और भाव कर्म दोनों में घटित होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग--इन पांच कारणों से आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन (कंपन) होता है, जिससे उसी आकाश-प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त कर्म-योग्य पुदगल जीव के साथ संबद्ध हो जाता है। वह आत्म-संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है। जीव और कर्म का यह सम्बन्ध नीर-क्षीरवत् एवं अग्नि-लोह-पिण्डवत् होता है। जीव और कर्म का सम्बन्ध कर्म-शास्त्र में दो प्रकार का माना गया है- अनादि अनन्त और अनादि-सान्त । सब भव्यों में तो नहीं, प्रायः निकट भव्य जीवों में अनादि-सान्त सम्बन्ध रहता है और अभव्य जीवों में तो एकान्तत: अनादि अनन्त सम्बन्ध रहता है। क्योंकि अभव्य ५४ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy