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• ॥नबारक वीराजेंज्मृरिकृता 5 श्रीकल्पसूत्रस्य बालावबोधिनी वार्ता ॥ एक अध्ययन ॥ नेमीचन्द जैन ।।
मध्यकाल में संस्कृत, प्राकृत और मागधी में लिखे ग्रन्थों की सरल टीकाएँ लिखने की परम्परा बनी। इसके कई स्पष्ट कारण थे। लोग इन भाषाओं को भूलने लगे थे और जीवन की अस्तव्यस्तता के कारण इनसे सहज सांस्कृतिक सम्पर्क टूट गया था; अतः सहज ही ये भाषाएँ विद्वद्भोग्य रह गयीं और सामान्य व्यक्ति इनके रसावबोध से वंचित रहने लगा। वह इन्हें सुनता था, भक्तिविभोर और श्रद्धाभिभूत होकर, किन्तु उसके मन पर अर्थबोध की कठिनाई के कारण कोई विशेष प्रभाव नहीं होता था। 'कल्पसूत्र' की भी यही स्थिति थी।
मूलतः कल्पसूत्र श्रीभद्रबाहुसूरि द्वारा १२१६ श्लोकों में मागधी में लिखा गया है (प्र. पृ. ५) । तदनन्तर समय-समय पर इसकी कई टीकाएँ हुई, जिनमें पण्डित श्रीज्ञानविमलसूरि की भाषा टीका सुबोध और सुगम मानी जाती थी, यह लोकप्रिय भी थी
और विशेष अवसरों पर प्रायः इसे ही पढ़ा जाता था। जब श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि से 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका करने का निवेदन किया गया तब उन्होंने यही कहा था कि पण्डित ज्ञानविमलसूरि की आठ ढालवाली टीका है अतः अब इसे और सुगम करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर श्रीसंघ की ओर से आये हुए लोगों ने कहा : "श्रीपूज्य, इस ग्रन्थ में थविरावली तथा साधुसमाचारी नहीं है अतः एक व्याख्यान कम है तथा अन्य बातें भी संक्षेप में कही गयी हैं अतः यह ग्रन्थ अधूरा है । कहा भी है कि 'जो ज्ञान अधूरा है, वह ज्ञान नहीं है; जो आधा पढ़ा है, वह पढ़ा हुआ नहीं है। अधूरी रसोई, रसोई नहीं है; अधूरा वृक्ष फलता नहीं है; अधूरे फल में पके हुए फल की भाँति स्वाद नहीं होता, इसलिए सम्पूर्णता चाहिये।' आप महापुरुष हैं, परम उपकारी हैं अतः श्रीसंघ पर कृपादृष्टि करके हम लोगों की अर्जी कबूल कीजिये।"
(प्र. पृ. ६)। इसे सुनकर श्रीमद् ने श्रावकों के माध्यम से ४-५ ग्रन्थागारों में से काफी प्राचीन लिखित चूणि, नियुक्ति, टीकादि की दो-चार शुद्ध प्रतियाँ प्राप्त की और कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका का सूत्रपात किया। इसके तैयार होते ही कई श्रावकों ने मूल प्रति पर से कुछ प्रतियाँ तैयार की किन्तु पांच-पचास से अधिक नहीं की जा सकीं। लिपिकों (लेहियों) की कमी थी और एक प्रति ५०-६० रुपयों से कम में नहीं पड़ती थी अतः संकल्प किया गया कि इसे छपाया जाए (पृ. ६)।
इस तरह 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका अस्तित्व में आयी। टीका रोचक है, और धार्मिक विवरणों के साथ ही अपने समकालीन लोकजीवन का भी अच्छा चित्रण करती है। इसके द्वारा उस समय के भाषा-रूप, लोकाचार, लोकचिन्तन इत्यादि का पता लगता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें भी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के क्रान्तिनिष्ठ व्यक्तित्व की झलक मिलती है। वस्तुतः यदि श्रीमद् हिन्दी के कोई सन्त कवि होते तो वे कबीर से कम दर्जे के बागी नहीं होते। कहा जा सकता है जो काम कबीर ने एक व्यापक पटल पर किया, करीब-करीब वैसा ही कार्य श्रीमद् ने एक छोटे क्षेत्र में अधिक सूझबूझ के साथ किया। कबीर की क्रान्ति में बिखराव था किन्तु श्रीमद् की क्रान्ति का एक स्पष्ट लक्ष्य-बिन्दु था। उन्होंने मात्र यति-संस्था को ही नहीं आम आदमी को भी क्रान्ति के सिंहद्वार पर ला खड़ा किया। मात्र श्रीमद् ही नहीं उन दिनों के अन्य जैन साधु भी क्रान्ति की प्रभाती गा रहे थे। 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका लिखे जाने के दो साल बाद संवत् १९४२ में सियाणा में श्रीकीर्तिचन्द्रजी महाराज तथा श्रीकेशर विजयजी महाराज आये। दोनों ही शुद्ध चरित्र के साधु थे। उन्होंने सियाणा में ही वर्षावास
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