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परिग्रह है। इस प्रकार किसी वस्तु को मोह-बुद्धिवश आसवित पूर्वक ग्रहण करना ही परिग्रह-परिसमन्तात् मोह बुद्धा गृह्यते स परिग्रहः । भगवान् महावीर की भाषा में आत्मा के लिए यदि कोई सबसे बड़ा बंधन है तो वह परिग्रह है-नत्थि एरिसो पासो पबंधो अस्थि सव्व जीवाणं । प्रश्न व्याकरण सूत्र २ |१| परिग्रह अर्थात् अर्थसंग्रह् सम्पत्ति आदि पर ममत्व अपने आप में हिंसा है इसलिये परिग्रह को त्याग किये बिना अहिंसा का वास्तविक सौन्दर्य खिल नहीं सकता क्योंकि जहाँ परिग्रह है वहाँ हिंसा अवश्यम्भावी है ।'
आचार्य उमास्वामी ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए कहा है मूर्च्छा परिग्रहः-- मूर्च्छाभाव परिग्रह है। पदार्थ के प्रति हृदव की आसक्ति - ममत्व की भावना ही परिग्रह है ।
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समाज में विषमता के फैलते हुए जहर को मिटाने के लिए, रोकने के लिए अपरिग्रह ही एक अनिवार्य साधन है । इसके लिए प्रत्येक मानव को अपनी इच्छाएँ कम नहीं करनी चाहिए । तृष्णा को धीरे-धीरे घटाना चाहिए और आवश्यकताओं को कम से कम करना आवश्यक है । संग्रहवृत्ति दानवता को जन्म देती है । लोभ, क्लेश, कषाय, चिन्ता, उद्विग्नता आदि को निरन्तर बढ़ाने वाली यही संग्रहवृत्ति है । जिसका नियंत्रण सुख शांति का अनुपम साधन है । परिग्रह का समुचित त्याग समाजवाद का वास्तविक रूप कहा जा सकता है ।
आवश्यकता से अधिक संग्रह करना चोरी है,
पाप है, महापाप है और इंसानियत का हनन है । भगवान् महावीर की वाणी में अपरिग्रह का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है:
(१) मुछा परिव्हो बुसो ।
( वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है । )
( विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल - बंधन नहीं)
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(२)
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि । सव्व जीवाणं
सव्व लोए ॥
( इच्छा आकाश के समान अनंत है )
१. श्री गणेशमूनि शास्त्री अहिंसा की बोलती मीनारें, पृष्ठ ७५
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(३)
इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।
(४)
बहुपि लधुं नहिं परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा ।
( बहुत मिलने पर भी संग्रह न करें। परिग्रह-वृति से अपने आपको दूर रखें) ।
(५)
परिग्गह निविद्वाणं वेरं तेसि पवड्ढई ।
(जो परिग्रह-संग्रहवृत्ति में व्यस्त है, वे संसार में अपने प्रति वैर की ही अभिवृद्धि करते हैं)।
(६)
कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।
( कामनाओं का अंत करना ही दुःख का अंत करना है) ।
(७)
जे ममाई महं जहाई से जहाइ ममाईअं ।
( जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है) ।
(c)
एतदेव एगेसि महव्वयं भवई ।
(परिग्रह ही इस लोक में महाभय का कारण होता है) । (९)
तिविहे परिग्पण्यते तं जहाकम्म-परिवड़े शरीर परियहे बाहिर भंड मत रहे ।
( परिवह तीन प्रकार का है-कर्म परिग्रह शरीर परिग्रह बाह्य भण्ड-भाण्डय उपकरण परिग्रह ) ।
(१०)
लोहस्सेस अनुष्का यो मन्ने अन्नदरामति ।
( संग्रह करना यह अन्दर रहने वाले लोग की झलक है ।)
( " भगवान महावीर के हजार उपदेश, संपादक श्री गणेशमुनि शास्त्री" से साभार)
यह ध्रुव सत्य है कि परिग्रही मरने के बाद नरकगामी होता है और परिमित संग्रही मृत्यु के उपरान्त मनुष्य जन्म पाता है ।
यदि हम शोषण को समाप्त करना चाहते हैं यदि हम विश्वबन्धुस्व की भावना को मूर्त रूप देने के इच्छुक हैं और चारों ओर सुख शांति स्थापित करने के लिए लालायित हैं तो हमें अपरिग्रहव्रत को शीघ्र ही अपना लेना चाहिए इसी में जन-जन का कल्याण है और यही भगवान् महावीर के अनुयायियों का आदि धर्म है ।
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राजेन्द्र- ज्योति
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