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संवत १९७७ भाद्रपद सुदी १ के दिन श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का बागरा में स्वर्गवास हो गया ।
चतुर्विघ संघ ने इकट्ठे होकर सर्वानुमति से मुनिराज श्री को जावरा ( मालवा ) में संवत् १९८० में आचार्य पद से सुशोभित किया। साथ ही नाम में भी परिवर्तन किया गया। परिवर्तित नाम बा-श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
गणाधीश पद पर विराजमान होने के बाद श्रीमद् में शांति, गांभीर्य आदि गुण और भी बढ़ते गये। तेज और प्रताप विकसित होते गये। गणनायक की प्रतिभा सर्वत्र प्रकाशित होने लगी । स्वपर गच्छीय श्रमणवृन्द में अनोखा स्थान पाये आचार्य हुए श्री की विद्वत्ता सुज्ञजनों को आकर्षित करती थी ।
तीर्थंकर देवों द्वारा स्थापित जैन शासन अनादिकाल से यथावत् चलता आया है और चलता रहा है। देशकाल के कारण चतुविध संघ के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में कई बार जटिलता भी निर्मित हो जाती है, उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में उलझन पैदा हो जाती है। उस उलझन को सुलझाने के लिए श्रमण प्रधान शासन के अमणों को हमेशा तैयार रहना चाहिये।
वि. सं. १९९० में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ का विशाल सम्मेलन राजनगर-अहमदाबाद में हुआ था। हर गच्छ के प्रमुख गणनायक वहां पहुंचे थे । विचारणीय बातों पर चर्चा और उनके निर्णय की बड़ी भारी जिम्मेदारी थी वहां जाने वाले के सिर पर ।
अपने गम के अधिनायक पूज्यवर श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी अपने परिवार के साथ, अपने शिष्यगण के साथ वहां पहुंचे ।
सम्मेलन में अनेक प्रश्नों और विचारों का आदान-प्रदान होता था। बार-बार सामने आने वाली किसी भी उलझनभरी क्रिया-प्रक्रिया को अपनी विद्वत्ता से आचार्य श्री सुलझाते थे। इतना ही नहीं पर मध्यस्थ दृष्टा के समान हर विषय में अपना सर्वग्राही मन्तव्य प्रकट कर वे हर एक के आदरणीय बन गये ।
सम्मेलन की पूर्णाहुति के समय एक समिति बनाई गई। उसका काम सिद्धान्त के प्रति होने वाले आक्षेपों का उत्तर देना था और सामाजिक प्रश्नों को हल करना था। इस समिति में पूज्य गुरुदेव ( धन्य धनचन्द्रसूरि अर्हम्, अर्हम् के उच्चारण के साथ आचार्यश्री की आत्मा नश्वर शरीर को त्याग कर परलोक के पुनीत पथ पर प्रयाण कर गई ।
आचार्य श्री के महाप्रयाण से संघ में शोक छा गया । रूप धारण कर आता है तब उसके सामने किसी का बस नहीं चलता ।
आसपास में दूर-दूर तक समाचार पहुंच गये । जनसमूह बागरा की धरती पर उमड़ पड़ा। गांव के बाहर दक्षिण दिशा में लोगों ने अभीनी आंखों से उनके पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया ।
जय हो । अमर रहो। इन गगनभेदी नारों से आकाश गूंज उठा। सब अपने-अपने स्थान पर लौट आये ।
बी. नि. सं. २५०३
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को भी स्थान मिला था। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव लोक हृदय में बस गये ।
साहित्य क्षेत्र में भी आप श्री ने अजोड़ काम किया। परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा लिखित श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन आप श्री एवं पूज्य मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी महाराज ने किया और उसे प्रकाशित करवाया। अभिधान राजेन्द्र कोश अखिल विश्व में बेजोड़ कृति है।
श्री चन्द्रराज चरितम्, दृष्टान्त शतकम्, शान्त सुधारस भावना आदि ग्रन्थ आपके पांडित्य के प्रबल प्रमाण हैं ।
जिनेन्द्र गुण मंजरी, आपकी कवित्व शक्ति का प्रबलतम प्रमाणपत्र है ।
अनेक प्रतिष्ठांजन शलाकाएं, उद्यापन, उपाधान आदि जो कार्य आपने करवाये वे सब आपकी शासन रसिकता के ज्वलंत दृष्टान्त हैं ।
मुनिराज श्री दानविजयजी एवं मुनिश्री कल्याणविजयजी, तत्वविजयजी और चारित्रविजयजी आपके सुशिष्य थे ।
आपने हमेशा आराधना और साधना में निरत रहकर जिन्दगी की एक-एक पल शासन सेवा और आत्मोद्धार के कार्य में लगाई । ऐसे प्रबल प्रतापी, शांति के अवतार समान आचार्य श्री अपने इष्ट देव का ओम अर्हम्, ओम् अर्हम् का जाप जपते स्वस्थ चित्त से संवत् १९९३ में माघसुदी ७ के दिन आहोर नगर में आपका स्वर्गवास हुआ ।
आहोर के भाविकों ने भव्य शिविका का निर्माण किया। बड़ी धूमधाम के साथ आचार्य श्री के पार्थिव शरीर का अग्निसंस्कार किया, उन्होंने वहां एक सुन्दर समाधि मंदिर भी बनवाया। उस मंदिर में श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीजी महाराज, श्रीमद् विजय घनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज और श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की प्रतिमाओं की स्थापना की ।
जैसे उदित होने वाला सूर्य अस्ताचल का भी आश्रय लेता है उसी प्रकार आचार्य श्री भी देहरूप से पार्थिव रूप से, हमेशा के लिए हमसे विदा हो गये पर अक्षर देह से बहुत कुछ दे गये हैं। ऐसे शांति के अवतार को हमारा शतशत बार वंदन हो । --'सोनेरी संभारण' से साभार अनूदित | O
पृष्ठ ४९ का शेष)
बागरा जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ ने भव्य समाधि मंदिर का निर्माण किया और उसमें आचार्य श्री की सुन्दर मूर्ति की स्थापना प्रतिष्टा उत्सव के साथ की।
आचार्य श्री गये अवश्य, पर अपनी गुण-गरिमा संसार के लिए छोड़ते गये ।
वे खुद धन्य बन गये और दूसरों को भी धन्य बना गये । आज भी जन गण मन में यही आवाज गूंज रही है
धन्य धन्य धनचन्द्रसूरि, वंदन नमन शत शत बार ।
-- सोनेरी संधारणा से साभार अनूदित
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