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________________ का सुन्दर विलेखन है जो मध्यकाल में अति प्रिय बना । प्रभामंडल सादा है किनारे पर दो रेखाओं के मध्य बिन्दुपंक्तियों के द्वारा केवल सजा है । सभी तीर्थंकर पद्मासीन ध्यानलीन हैं। मूलनायक को छोड़कर सभी के मख घिसे हैं। इसका आकार १०५४५० से. मी. है। चरणापिभिलेख के कुछ अक्षर "रि क स प्रतिमा कारित" । इस प्रकार यह संग्रह की सर्व प्राचीन चौबीसी है। तदुपरान्त श्रावस्ती बहराइच से प्राप्त चौबीसी (६६-५९) है, जिसका आकार ५८४८३ से. मी. तथा मूंग के रंग के पत्थर से बनी है। इस पर २३ लघु जिनध्यानस्थ हैं, बायीं तरफ जगह छोड़ दी गई है। मूलनायक को जोड़कर चौबीस तीर्थकर हैं। त्रिछत्र पर देवदुन्दुभिवादक तथा नीचे पद्मपत्रों से अलंकृत प्रभामंडल है। इसी के पास पद्माधार पर प्रत्येक ओर एक एक हाथी है, बायीं ओर के हाथी पर आगे सवार तथा पीछे शेर का मुख तथा सामने के दो पंजे हैं । क्यों ? मैं नहीं कह सकता । दूसरी ओर दम्पति सवार है । नीचे त्रिभंग मुद्रा में वस्त्राभूषण से समलंकृत चंवरधारी भगवान ऋषभदेव पर चंवर ढुला रहे हैं । मोती व फूलों से कढ़ी हुई गद्दी आसन पर बिछी है । नीचे सिंहासन के दोनों ओर सिंह बैठे हैं, बीच में धर्म-चक्र के समीप ही इनका लाक्षन बैल विराजमान है । सिंहासन के बायीं तरफ नमस्कार मुद्रा में यक्ष या गृहस्थ तथा दूसरी ओर गादी पर चतुर्भुजी अर्द्धपर्यकासन में चक्रेश्वरी बैठी है, जिनके ऊपर दो हाथों में चक्र तथा नीचे शंख एवं अस्पष्ट वस्तु है । दीक्षावृत्तभी कुछ तीर्थंकरों पर बना कृति सिद्ध होती है। इसका आकार १ मी. ३४४० से. मी. है तथा सुरमई रंग के पत्थर से बनी है । १५ तीर्थकर तो स्पष्ट हैं, शेष का आभास है तथा कुछ अंश क्षतिग्रस्त हैं । प्रभामंडल अलंकृत है, कैवल्य वृक्ष है, कंधे पर लटें हैं, मूलनायक के हाथ और पैर टूटे हैं । पीठिका पर बायीं तरफ तीन सर्पफणों की छत्र-छाया में चतुर्भुजी पदमावती, जिसके दो हाथ बाकी दो पूर्णतया लुप्त हैं । दायीं तरफ चतुर्भ जी नरवाहना चक्रेश्वरी आसीन है। त्रिभंगमुद्रा में चंवरधारी हैं। प्रतिमा प्रभावोत्पादक है किन्तु दुर्भाग्य से इसका प्राप्ति स्थल अज्ञात है। किन्तु अपने युग की कला का उत्तम निर्देशन है। छठी चौबीसी (६६-२९५) जिसका आकार ४३ x ३३ से. मी. तथा मटीले रंग की है, सभी जिन ध्यानस्थ, मूलनायक का मुख तथा नीचे टूटी है, कुछ तीर्थंकर भी घिस चुके हैं, बायीं और दायीं ओर तीन-तीन की तीन पंक्तियाँ हैं, जो १८ हैं ऊपर तीन बायें तथा २ दायें हैं। कुल २३ व मूलनायक मिलाकर चौबीस हैं । मूलनायक पर त्रिछत्र है, जिस पर सामने की ओर घिसी ध्यानस्थ प्रतिमा का आभास है, पीछे दोनों ओर एक विद्याधर है । जो दोनों हाथों से कलश को लिए हुए अंकित है। कृति लगभग ९ वीं शताब्दी की लेख रहित है । प्राप्ति स्थान अज्ञात है। _तत्पश्चात् आती है चौबीसी (जे. ८२०) जो दूध से श्वेत संगमरमरी पत्थर पर तराशी गई है । यूं तो संग्रहालय में ऐसी ही धातु की तरह बजने वाली मूर्तियाँ भी हैं किन्तु इसमें आवाज नहीं आती है। मुलनायक विवस्त्र खड्गासन में खड़े हैं, यहाँ पर दोनों ही ओर ग्यारह-ग्यारह ध्यानालीन अर्हन्त हैं, एक मूलनायक कुल तेईस हैं, पता नहीं क्यों ? संभव है स्थानाभाव के कारण एक नहीं बनाया गया हो। दायीं तरफ भी एक लघु प्रतिमा है, इनके मुख से तेजस्विता टपकती है। शारीरिक गठन भी सौष्ठवपूर्ण है। तथा मूलदेव रूपवान, यौवन सम्पन्न दर्शाये गये हैं। चंवरधारी त्रिभंग मुद्रा में मूलनायक की ओर मुख किये खड़े हैं । इन्हीं के बीच में बायीं तरफ स्त्री तथा दायीं तरफ पुरुष वंदना मुद्रा में बैठे हैं, जो यक्ष-यक्षी हो सकते हैं। क्योंकि इनके समानान्तर अन्य तीर्थंकर बने हैं। वैसे यक्ष-यक्षी नहीं माने तो उपासक उपासिका माने जा सकते हैं । मुलनायक की हथेली कमलपत्र है जिसे यहाँ पुराने रजिस्टरों में तश्तरी (Discs) लिखा पाते हैं। प्रभामंडल सजावटयुक्त है, त्रिछत्र है जिसपर आकर्षित ढंग से कीर्तिमुख मुक्तालड़ियों को उखलते बने हैं। ऊपर देव दुंदुभिवादक खंडित हैं। दोनों ओर हाथी हैं जिनके सवार आज टुट चुके हैं। इन्हीं के नीचे हवा में उड़ते माला लिये हुवे विद्याधर दम्पत्तिदोनों ओर लक्षित हैं। कैवल्य वृक्ष की पत्तियां भी बनी हुई हैं। इसी प्रतिमा की चरण चौकी पर देवनागरी लिपि में दायीं तरफ पंचाक्षरी मंत्र अंकित है तथा मध्य में गोलाकार शान्ति यंत्र है। यन्त्र के उपसमीप ही बायीं तरफ मह किये बैल बैठा है। इसी के ऊपर "असि आ ऊ सा स्वाहा" अर्थात् अर्हन्त सिद्ध, उपाध्याय एवं साधु का बंदन है । इस प्रकार की मंगल भावनाओं से युक्त चरणपीठिका अनुपम माने जाने की अधिकारिणी नहीं है क्या ? तीसरी चौबीसी ९०४५३ से. मी. की घिसी हुई है। इसका प्राप्तिस्थान अज्ञात है । नीचे एक आकृति नृत्य कर रही है-यह कौन हैं ? मैं नहीं कह सकता । नीचे सिंहासन पर ऋषभदेव उत्थितासन में दर्शाए गये हैं । दोनों ओर चंवरधारी तथा विद्याधर माला लिये समुपस्थित हैं। दोनों ओर बारह-बारह जिन बैठे हैं, मूलनायक को लेकर पच्चीस जिन हो जाते हैं । ___ चौथी चौबीसी (जी. ३२२ व ६६-२७३) है जिसका माप १ मीटर ७४ ७० से. मी है तथा विन्ध्याचल के पत्थर से बनी है । मूलनायक ऋषभदेव कायोत्सर्ग मुद्रा में विवस्त्र खड़े हैं, शिर नहीं है । श्रीवत्स मूलनायक सहित सभी बना है। परिचय चिन्ह बैल का अभाव है, लेख भी नहीं है। इस समय मूलनायक मिला कर बाईस तीर्थंकर हैं । ऊ परी भाग खंडित है, ऊपर शेष हैं। बायीं तरफ सबसे नीचे अर्हन्त तथा उससे तीसरे खड़े एक सर्पफण वाले सुपार्श्वनाथ भी हैं। इसके समानान्तर भी खड्गासन में एक अर्हन्त दिखलाये गये हैं। दायीं तरफ नीचे चतुर्भुजी चक्रेश्वरी नरवाहना है जिसे डा. यू. पी. शाह ने अप्रतिरथा के रूप में भी पहचाना है। सिंहासन सिंहों पर है जिनके मुंह एक दूसरे के विपरीत हैं तथा मध्य में चक्र है जिससे वस्त्र पहरा रहा है । चंवरधारियों की मुखाकृति, वस्त्राभूषणादि के आधार पर यह कृति चंदेलयुगीन लगती है तथा महोबा से १९३५ में यहाँ लाई गई है। पाँचवीं चौबीसी (जे. ९४९) भी बड़ी मनोज्ञ है तथा कटि पर अधोवस्त्र का चिन्ह सुस्पष्ट है । अत: यह निःसंदेह श्वेताम्बरी ४. इसे समझने में डा. प्रद्युम्न कुमार जैन अधना नैनीताल कालेज के प्रधानाचार्य का मैं हृदय से आभार स्वीकार करता हूं। वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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