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"तीनथुइ" आम्नाय : मान्यताओं का
एक निष्पक्ष मूल्यांकन
- मुनि श्री जयन्तविजय 'मधुकर'
"त्रिस्तुतिक" आम्नाय जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों से पूरा तालमेल रखता है, उनका यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर तर्कसंगत प्रतिपादन करता है, और ऐसी भक्ति-भावना को प्रश्रय देता है, जो आत्मकल्याणकारी और शुद्धाचरणमुलक है तथा जिसका अन्धविश्वासों तथा भ्रान्त धारणाओं से कोई सरोकार नहीं है।
सम्यक्त्व जैनधर्म की नींव है, जिसका सीधा सम्बन्ध तर्क और विज्ञान से है। सम्यक्त्व का अन्धविश्वास या भ्रान्ति से कोई सरोकार नहीं है। सम्यक्त्व का साधन और सिद्धि दोनों की शुचिता से सम्बन्ध आता है; क्योंकि यह अत्यन्त वैज्ञानिक और तर्कसंगत है कि जैसा साधन होता है, वैसी ही सिद्धि होती है; या जैसी सिद्धि होती है, तदनुरूप साधन संपादित किये जाने चाहिये; एक-दूसरे की शुचिता-अशुचिता एकदुसरे को प्रभावित कर सकती है, करती है। देखा गया है कि माध्यम के दोषपूर्ण होने पर लक्ष्य या तो धुंधला जाता है, या हासिल नहीं हो पाता; अथवा साध्य की अस्पष्टता के कारण साधनों का समीचीन समायोजन संभव नहीं हो पाता है, इसलिए वे लोग, या आम्नाय जो सम्यक्त्व का यथाशक्ति अनुसरण-आचरण करते हैं, साधन और साध्य दोनों के निर्दोष और शुद्ध होने पर जोर देते हैं। "तीनथुइ” आम्नाय सम्यक्त्व को सर्वोपरि महत्त्व देता है, और आध्यात्मिक जीवन के हर क्षितिज को साधन-साध्य की शुचिता से निष्कलंक-निष्कलुष रखना चाहता है।
___ "त्रिस्तुतिक" और "चतुःस्तुतिक" आम्नायों का मूलाधार क्रमशः “तीन" और "चार" "देववन्दन" (चेइयवन्दण) हैं। दोनों आम्नायों में प्रथम तीन स्तुतियों को लेकर कोई मतभेद नहीं है। विवाद चौथी थुइ (स्तुति) को लेकर ही है । “तीनथुइ" के अनुयायी (१) किसी एक तीर्थंकर की स्तुति, (२) अवशिष्ट तीर्थंकरों की स्तुति तथा (३) जिनवाणी की स्तुति इस तरह तीन स्तुतियों को मानते हैं, जबकि “चारथुइ" के अनुयायी उक्त "देववंदन" के साथ एक चौथी थुइ और जोड़ते हैं। यह थुइ उन लौकिक देवी-देवताओं के गुणानुवाद से संबन्धित है, जो पार्थिवता में लिप्त हैं और सराग हैं। जो लौकिक हैं, जिनका आत्म-बल या वैभव अभी आवृत है, अप्रकट है उसकी अनुभूति (स्तुति के संदर्भ में) जैनधर्म भला कैसे दे सकता है? यदि कोई जैन वैसा करता है तो वह मिथ्यात्व के क्षेत्र में अनजाने ही प्रवेश कर जाता है, उसके ऐसा करने से सम्यक्त्व को चोट लगती है और जैनधर्म की वन्दना-पद्धति दूषित होती है, साध्य-साधन की शुचिता भी टूटती है।
हम जानते हैं, सभी जानते हैं कि जैन वन्दना का संबन्ध वीतरागता से है, सरागता के चरणों में जैन मस्तक कैसे झुक सकता है, और फिर कोई जैन यदि लौकिक देवी-देवताओं के आगे याचना की झोली पसारता है तो वह सम्यक्त्व के सीमा-क्षेत्र से सर्वथा बाहर निकल जाता है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जिनेन्द्रदेव की वन्दना किसी लौकिक वांछा की पूर्ति अथवा किसी पार्थिव वैभव की प्राप्ति के लिए कभी नहीं की जाती वरन् उसका मूल लक्ष्य उस आत्मवैभव को अनावृत, उद्घाटित करना होता है, जिसके कारण "तीर्थकर" "तीर्थकर" कहे जाते हैं।
वो.नि. सं. २५०३
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