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कुक्षी ने गुरुदेव द्वारा स्थापित संघ में साध्वी श्री कंचनश्रीजी, मुक्तिथीजी, स्वयंप्रभाश्रीजी एवं चन्दनाश्रीजी के रूप में विदुषी साध्वियां भी दी हैं।
कुक्षी व तालनपुर में पूज्य गुरुदेवजी की तीन मूर्तियां स्थापित की हुई हैं। कुक्षी में गुरुदेव द्वारा स्वयं प्रतिष्ठित ज्ञान मंदिर में आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीजी द्वारा संवत् १९८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा गुरुदेव की विराजित की गई थी किन्तु वह खण्डित हो जाने होने के कारण से वहां पर संवत् २००१ में श्री न्यायविजयजी द्वारा ग्राम दसाई में प्रतिष्ठित प्रतिमा गुरुदेव की स्थापित की गई है। यह प्रतिमा कुक्षी के प्रसिद्ध सेठ जारोलीजी द्वारा स्थापित की गई है। नयापुरा स्थित आदिनाथजी के मन्दिर के एक भाग में गुरुदेव की प्रतिमा पूज्य भूपेन्द्रसूरीजी द्वारा संवत् १९८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा स्थापित है। कुक्षी के समीपस्थ तीर्थ तालनपुर में गुरुदेव की प्रतिमा संवत् २०१४ में सेठ चम्पालालजी की धर्मपत्नी श्राविका हेतीबाई खूटवाला ने स्थापित करके अखूट लाभ कमाया है। इस प्रतिमा के विराजित किए जाने के पश्चात् तालनपुर के विकास की
ओर कुक्षी श्रीसंघ का ध्यान आकर्षित हुआ होकर वर्तमान में तीर्थ का विकास कार्य प्रारम्भ है। तीर्थ में अभी धर्मशाला के निर्माण का कार्य चल रहा है। तीर्थ की व्यवस्था वर्तमान में मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' को प्रेरणा से स्थापित "श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी" कर रही है।
इस प्रकार गुरुदेव द्वारा बहाई गई त्रिस्तुतिक सिद्धान्त की पवित्र धारा में कुक्षी ने स्वयं को प्लावित करते हुए इस धारा को बढ़ाने में भी सहयोग दिया है। शायद इसी कारण से गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में तीन चातुर्मास कुक्षी में ही किए । अन्य किसी भी स्थान पर शायद गुरुदेव ने आचार्य काल में तीन चातुर्मास नहीं किए हैं। गुरुदेव की बहाई हुई संवत् १९२६ के प्रतिबोध की धारा आज भी कुक्षी को पूर्ण रूप से प्लावित किए हुए है । कुक्षी का प्रत्येक श्रावक आज भी गुरुदेव का सान्निध्य अनुभव करते हुए गुरुदेव का स्वयं को ऋणी अनुभव करता है तथा उनके द्वारा प्रज्वलित ज्योति को चिरकाल तक दीप्त रखने को संकल्पित है।
इति शुभम् ।
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(विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरि और हमः पृष्ठ ७३ का शेष)
श्रीमद् राजेन्द्र सूरि पर शोध होना अवशेष है जैसे इन पर शोधकार्य होगा, उनके कार्य प्रकाश में आयेंगे तभी पूर्ण मूल्यांकन होगा। यह शोध का स्वतंत्र विषय है। मुझे जो कहना है वह यह कि श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ज्ञान, साधना और सदाचरण की त्रिवेणी में समान रूप से निमज्जित रहे।
जैन धर्म आत्मा का विज्ञान है । आचार्य श्री आत्मखोजी थे और उन्होंने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया ।
पूज्य राजेन्द्र सूरि के जीवन की मुख्य कथाएं यहां कहने का लक्ष्य नहीं है। प्रश्न उनके बनाए मार्ग पर (स्वयं आचरण किया था) हम उनके अनुयायी (साधु तथा श्रावक समाज) कितना आचरण कर रहे हैं; यह देखने की बात है।
श्रीमद् राजेन्द्र सूरि के अनुयायी बनने और कहलाने का हमारा नैतिक अधिकार तब ही सुरक्षित रह सकता है जब हम उनके बताए आदर्शों पर पवित्रतापूर्वक मन वचन से आचरण करें। जहां हम ज्ञान की चर्चा करते हैं तब आचरण नाचता है। सदाचरण की आवश्यकता रहती है। ज्ञान तो कोरा बुद्धिक्रीड़ा है। अतः आज हमें उनके मार्ग पर चलने की सामयिक आवश्यकता है।
यह सच है कि उस महापुरुष को संपूर्ण रूप से आत्मसात् करने की हमारी क्षमता नहीं हो सकती है। लेकिन उन्हें लक्ष्य मान कर चलने का प्रयास तो हम कर सकते हैं। भटके नहीं। बस यही सच्ची गुरु भक्ति सिद्ध हो सकती है।
___ आचार्य श्री ज्ञान और आचरण की तुला में समान थे । आज नये-नये चिंतक, संत और भगवान बन रहे हैं वे आचरण में निश्चित रूप से इतने ऊंचे नहीं बन पाए। बुद्धि विलास के नये-नये आयाम भले ही दे देंवे किन्तु हमारी संस्कृति तो त्याग और सदाचरण से ही पूजी गई है । यह बात श्रीमद् राजेन्द्र सूरि में थी।
राजेन्द्र-ज्योति
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