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तपस्वी ध्यानी तो अपनी आत्म-शुद्धि में निमग्न रहते हैं, उनके सामने चाण्डाल या व्याधि की उपस्थिति कोई विघ्न करने वाली नहीं होती है । उस समय दोनों भाई अपने अन्तरंग में सोचते हैं कि इन महात्मा की वाणी बड़ी मीठी है। सबका कल्याण करने वाली है किन्तु जब इनको यह जानकारी मिलेगी कि हम दोनों चाण्डाल हैं, अस्पृश्य हैं, नीच कुल की सन्तान हैं, तो इनकी त्योरियां चढ़ जायगी, क्रोध की अग्नि ज्वाला प्रज्वलित हो जायगी । हमको तिरस्कृत कर देंगे इस प्रकार सोचते-सोचते कुछ संकोचकर हिम्मत करके एक भाई ने बड़े ही धीमे स्वर से बोला:
स्वामी नाथ ! हम चाण्डाल के पुत्र हैं हम आपकी शरण में कैसे आ सकते हैं ?
यह सुनते ही मुनिराज बड़ी ही गंभीर आकृति बनाकर मीठे शब्दों में बोले-क्या चाण्डाल मनुष्य नहीं होता है, क्या कुलीन जैसे-मिट्टी से इनका निर्माण नहीं हुआ है तथा इनको अपना आत्म कल्याण करने का अधिकार नहीं है, परमात्मा के नाम से ये कैसे वंचित रह सकते हैं, आओ यहां मेरे पास आओ और अपनी इस बात को भूल जाओतुम मेरे समान मनुष्य हो।
ऐसे मीठे वचन सनकर मन में संकोच होते हुए भी दोनों भाई मुनिराज के पास आकर बैठ गये और सोचने लगे, यह मानव इस लोक का प्राणी नहीं हो सकता, सचमुच यह तो देवताओं के संघ में से कोई मानव आकर यहां बैठ गया है ।।
चित्र और संभूति दोनों ने अपनी आत्मकथा मुनिराज को सुनाई, मुनिराज ने बड़े ही ध्यान से उनकी कथनी को सुना । कुशल वैद्य की तरह चित्र और संभूति को सान्त्वना प्रदान की, संसार के असंख्य दुःख-दर्द और भव-भव के बन्धनों से छुटकारा पाने का राजमार्ग बताया। ___ संसार और संसारियों के अनेक उपद्रव सहन करते हुए आत्मा को उच्च श्रेणी पर आरूढ करने का सद्भाग्य कोई विरले प्राणी को ही मिल सकता है । तुमको भाग्य से यह सुअवसर प्राप्त हुवा है। इसको हाथ से न जाने दो, अनन्तकाल के हिसाब से यह दु:ख और यह क्षणिक जीवन किस गिनती में है। वीरता से इस दु:ख और कष्ट का सामना करो, इस प्रकार संसार के सुख-दुःख को भी अपने दासानुदास जैसे बना दो।
चित्र और संभूति दोनों भाइयों को तपस्वी मुनिराज का यह उपदेश बहुत रुचिकर हुवा और उन्होंने उनके चरणों में अपना शीश नमाकर उद्धार करने की प्रार्थना की। मुनिराज ने उनको भगवती दीक्षा देकर उनका चाण्डालपने का मेल धो डाला । दोनों भाइयों ने अपनी इसी देह से पुनर्जन्म ले लिया । ___अब दोनों मुनिराज निर्भय रूप से तप चर्या करते हैं कहीं क्रोध, मान, माया लोभ की कलुषित हवा आत्मा को न लग जाय इसलिये जगत की घनघोर झाड़ियों में, गिरी कन्द
राओं में रात-दिन आत्म साधना करते हैं मास क्षमण की तपस्या करते हैं। महीने में एक समय नगर में आहार की आशा से आते हैं तमाम चिन्ता फिक्र छोड़ दी है आत्म नन्दी बन गये हैं ।
एक दिन मास क्षमण के मुनि संभूति आहार लेने के लिये हस्तिनापुर नगर में जा रहे हैं, उनके मुख से तपश्चर्यों की कांति झलक रही है जो भी इनको देखता वह नत मस्तक हो जाता है, नीची दृष्टि करके मनिराज जा रहे हैं कि सामने से नमूची मंत्री आ रहा है, उसने संभूति मुनि को देखा और पहिचान लिया, उसी समय विचार किया ओहो यही बह चाण्डाल है जो मुनि का वेश धारण करके जनता को अपने चंगुल में फंसाना चाहता है संसार के मनुष्यों को धोखा देना चाहता है, लूटना चाहता है, पीछे से आकर मनि का गला पकड़ा और कहने लगा साधु का वेश पहिन कर लोगों के साथ ठगी करता है, चला जा यहां से, ऐसे आक्रोश के वचन कहकर एक जोर का धक्का मारा, संभूति मुनि गिरते-गिरते बच गये।
उन्होंने अपने सामने नमूची को देखा, देखते ही उनकी आंखें लाल हो गई क्योंकि क्रोध और तप का बहुत पुराना सम्बन्ध है । तपस्वियों की आंखों में जब ज्वाला निकलती है तो इस ज्वाला ने क्या-क्या अनर्थ नहीं किये है, लम्बी तपश्चर्या के प्रभाव से संभूति मुनि को गुप्त शक्ति प्राप्त हो गई है वे नमूची के इस व्यवहार को सहन नहीं कर सके उन्होंने नमूची पर तेजी से तेश्या छोड़ी। नमूची जलने लगा इतना ही नहीं पूरे हस्तिना पुर में आग की ज्वालाएं धधकने लगी ऐसा आभास होने लगा। महाराजा के महल में जब ये समाचार पहुंचे तो सनत्कुमार चक्रवर्ती वहां दोड़े आये और हाथ जोड़कर तपस्वी मुनि से विनती करने लगे। महाराज आप तो ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, हमारे अपराधों को क्षमा करो।
इतने ही में चित्र मुनि वहां आ पहुंचे, उन्होंने संभूति मुनि की क्रोध ज्वाला के ऊपर शांत सुधारस के अमीका सिंचन किया, सबको शांत किया । नमूची भी अपने किये हुए का प्रायश्चित करने लगा और संभूति मुनि के चरणों में गिरकर अपने दुष्कृत्यों की क्षमा याचना करने लगा । चित्र मुनि ने सबको शांत किया और सब जगह सुखमय वातावरण फैल गया।
चित्र और संभूति मुनि जंगल में लौट गये और प्रतिदिन के कार्यक्रम में संलग्न हो गये । संभूति मुनि की आंखों के सामने नमूची का वही गला पकड़ने का दृश्य बार-बार घूमने लगा, उस दृश्य को वे भूलना चाहते हैं किन्तु भूला नहीं जाता है। मुनि अपने साधना मार्ग से ऐसे गिरे कि पुनः ऊपर नहीं उठ सके। पतन की भी परम्परा होती है इसलिये साधक मामूली रखपन से भी अपने आपको बहुत संभाल कर चलते हैं । साधना की सीढ़ी इतनी ही कोमल और चिकनी होती है कि एक वक्त फिसलने के बाद संभलना बहुत मुश्किल होता है और धीरे-धीरे नीचे ही आकर खड़ा हो जाता है।
वी.नि.सं. २५०३
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