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________________ चित्र मुनि ने संभूति को बहुत समझाया और कहा कि किये हए पाप की आलोयणा लेकर एक समय फिर निर्मल हो जाओ, परन्तु प्राप्त की हुई लब्धि का मुनि को नशा चढ़ा गया है जिससे संभूति मुनि को चित्र मुनि की सलाह ने कोई असर नहीं किया। दोनों मुनि आचार और व्रत का पालन एक समान करते हैं किन्तु दोनों की अन्तर दृष्टि अलग-अलग है । बाहर से दोनों एक पथ के पथिक दिखाई देते हैं परन्तु इनका दृष्टिकोण बदल गया है एक लोकोत्तर सुख प्राप्ति के नियम से तमाम व्रतों का आचरण करता है तो दूसरा लौकिक सुख की कामना से संयम के कष्ट सहन करता है। जिस प्रकार दबी हुई अग्नि किसी भी दिन अपना स्वरूप प्रकट करती है उसी प्रकार संभूति के उपर वासनाओं ने अपना आधिपत्य जमाना शुरू किया। कुछ समय पश्चात् हजारों नागरिकों के साथ सनत्कुमार चक्रवर्ती अपनी सबसे सुन्दर रानी सुनन्दा सहित मुनि श्री संभूति के दर्शन वंदन करने आये। संभूति मुनि जब रानी सुनन्दा को सुन्दर वस्त्रों सहित सुगंधित द्रव्यों से युक्त आंख में काजल, मस्तक पर लाल तिलक को देखा तो उनका संयम का किला उस दिन से धीरे-धीरे ढहने लगा। सुनन्दा ने मुनि का वंदन किया उस समय उसके बालों का सहज उनके चरणों में स्पर्श हो गया। इससे मुनि के जीवन का मन्थन करके बुद्धि का जो संचय किया था उसका भी उल्लंघन हो गया । वासना ने उग्ररूप धारण कर लिया और संभूति मुनि के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। उसी समय उन्होंने अपने मन में निश्चय किया कि यदि मेरे तप का प्रभाव हो तो मुझे इस भव में नहीं तो परभव में भी सुनन्दा जैसी स्त्री प्राप्त हो । इधर चित्र मुनि को जब इस बात की जानकारी हुई तो उनका हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने संभूति मुनि को बहुत समझाया की एक कांच के टुकड़े के लिये दुर्लभ तपश्चर्या का संयम रूप भण्डार क्यों लूटा देते हो। तुमने किस उच्च आशय से संयम मार्ग ग्रहण किया, किस आदर्श से आज तक संयम का पालन किया, तपश्चर्या से इन्द्रियों का निग्रह किया, अपने आप पर विजय प्राप्त की, अब पुन: आत्मा बुद्धि की ओर कदम बढ़ाओ, अपने आप पर विजय प्राप्त करो । संभूति मुनि के ऊपर चित्र मुनि के उपदेश का कोई असर नहीं हुवा और उन्होंने जो निश्चय किया उस पर अडिग रहे । मनुष्य के जिस समय जिस कर्म का उदय होता है उस समय उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है और वह काम भी वैसा ही करने लग जाता है इसमें विजय प्राप्त करने वाले दुर्लभ प्राणी ही होते हैं। इस निश्चय के परिणाम से संभूति मुनि दूसरे भव में कापिल्यपुर नगर में ब्रह्मदत्त नामक बारहवें चक्रवर्ती हुए। चित्र मुनि केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में गये। दोनों भाइयों ने एक ही आशय से संयम अंगीकार किया, एक ही गुरु के उपदेश से मुनि दीक्षा अंगीकार की, दोनों ने समान रूप से तपश्चर्या की किन्तु उसका फल मनोभावना अलग-अलग होने से जुदा जुदा प्राप्त किया । संभूति मुनि दुर्लभ बोधि भावना के कारण अलग रास्ते चले गये और चित्र मुनि सुलभ बोधि भावना के कारण मोक्ष में चले गये। वन्दन हो चित्र मुनि की भावना को । अपनी मति को सदैव वैराग्य-रस में ओत-प्रोत रखो, जिससे जन्म-मरण सम्बन्धी दुःख मिटता जाए और आत्मा सुखमय बनती जाए। मिथ्यात्वी काले नाग से भी भयंकर है। काले नाग का जहर तो मन्त्र या औषधि द्वारा उतारा जा सकता है, किन्तु मिथ्यात्व-ग्रसित व्यक्ति की वासना कभी अलग नहीं की जा सकती। -राजेन्द्र सूरि राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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