________________
गतिमन्द थकि चालहि सुपंथ, इर्या सुशोध समदृष्टि संत । गहे अंत पंत तुच्छ आहार, एषण सुदोश पूरण निवार । जंत्री सुचक्र जिम लेप देय, मुनि आत्मपिंड तिम भाडं देय । चालीस सात छवि छडि दोष, इम निरममत्व मुनि आत्मपोष ।।
कविवर का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है। अपनी प्रसिद्धि के लिए औदासीन्य अथवा अपने अप्रमत्त व्यस्त साधक जीवन में स्फुट रचनाओं के उपरान्त स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार करने के लिए अवकाश का न होना ही कदाचित् इसका मुख्य कारण रहा होगा।
रुचिजी ने अपने समय की सामाजिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का चित्रण इन शब्दों में किया है--
'भोला श्रावक गुण नहि जाणे गाडरिया परवाहे लागा, मिथ्या धरमे धावे ।
देखो श्रावक नाम धरावे ।। कुगुरु कुदेव कुधर्मे लागा, हौस करीने होड़े । शुध समकित बिन ललाड़ मांहे लोही कर्दम चोड़े ।। पनरा कर्मादान प्रकाश्या, नरक तणा अधिकारी । कुवणज थोरी भील कसाई, विणजे पाप वधारी ।। कुगुरु का भरमाया हरखे, धरम धींगणा मांडे । सद्गुरु की वाणी सुण कष्टे, मिथ्यामत ने छांडे ।। होंग धूतारा लावे ढोंगी, म्होटा बाजे साजी । भ्रष्टाचारी चरण पखाली, पीवे राजी राजी ।। श्राविका पण सरधा सरखी, जीव अजीवन जाणे । सडी · · पूजे, मिथ्या आशा ताणे ।। मनुज जमारो कुल धावक को कोइक पुण्ये पावे ।। सदगुरु की सरधा बिन प्राणी, फोकट अनम गमावे ।। नय-निन्दा मत आणो मन में, आतम अरथ विचारो। - सुरि राजेन्द्र की बाणी सुण के प्रमोद रुचि मन धारो।
देखो श्रावक नाम धरावे । उन्नीसवीं शताब्दी में श्रावक धर्म के प्रति लोगों में तीखी उपेक्षा और उदासीनता थी। सम्यक्त्व का वास्तविक अर्थ कोई जानता ही नहीं था। प्रायः सभी धर्म के आडम्बरों में उलझे हुए थे। सद्गुरु दुर्लभ थे, प्रवंचक और धोखादेह लोग ही साधुओं के वेष में आम लोगों के साथ विश्वासघात और छल कर रहे थे। ऐसे कठिन समय में भी कविवर को सद्गुरु पाने में सफलता मिली । एक लावणी में उन्होंने लिखा है'सफल करो श्रद्धान, मान तज कुमती को वारो।
समझकर समता को धारो। कर्म अनन्तानुबन्धी भवों का, जिन भेट्या सरक्या ।
चेतना निर्मल हुए हरख्या ।। दोहा-चेतना निर्मल होय के, कर भक्ति राजेन्द्र । सूरीश्वर सिर सेहरो, वन्दो भविक मुनीन्द्र ।।
जगत में प्रवहण निरधारो।।
पंचम आरे एह शुद्ध मुनिवर उपगारी । क्षमा को खड्ग हाथ धारी ।। पंचमहाव्रत धार मारकर ममता विषधारी ।
जिन्हों का संजम बलिहारी ।। दोहा-बलिहारी मुनिराज की, मारी परिसह फौज । अमृत वचन प्रमोद सुं, रुचि वन्दे प्रति रोज ॥
कालत्रिहुं वन्दन धारो ।। कविवर ने श्रीमद् की निश्रा में ज्ञान की अविराम आराधना और तप की उत्कृष्ट साधना की। वे ध्यान-योगों की प्रवृत्ति भी नियमित किया करते थे। श्रीमद् की भांति ही रुचिजी भी एकएक पल का अप्रमत्त उपयोग करते थे। उनकी इन आध्यात्मिक उपलब्धियों का वर्णन इस रूपक में दृष्टव्य है
__ मैं तो वन्दु मुनीश्वर पाया।
ध्यान शुक्ल मन ध्याया ।। उपशम रस जल अंग पखारे, संजम वस्त्र धराया । आयुध अपने उपधि धारी, दृढ़ मन चीर उपाया ।। तप चउरंगी सैन्य सजाई, मुक्ति डूंगर चढ़ आया । कर्म कठिन दल मोह जीत के, परिसह झंडा उड़ाय। ।। निरुपद्रव निज तनपुर ठाणे, रजवट केवल पाया। एम रुचि मुनि शुभ ध्यान प्रमोदे, मुक्ति निशाण धुराया ।।
निश्छल-गुणग्राही प्रमोदरुचिजी ने अपने "विनतिपत्र" में अन्य मुनियों के साथ अपने गुर-भाई एवं सहपाठी श्री धनमुनि को साधुगुण-रूपी रथारूढ़ श्रीमद् के कुशल सारथी के विरद से अलंकृत किया है। उनकी यह उपमा इसलिए भी बड़ी सटीक और सार्थक है क्योंकि जिस तरह महान शूरवीर योद्धा गौरवपूर्ण पार्थ के सारथी श्यामवर्ण कृष्ण थे, ठीक उसी प्रकार श्रीमद् राजेन्द्रसूरि गौरवर्ण थे और धनमुनि श्यामवर्ण थे। दोनों ही अपने समय के वाग्मी शास्त्रवेत्ता थे। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ज्ञान-गम्भीर, अध्यात्म और आगम-निगम के अखूट भण्डार थे, और धनमुनि काव्य, अलंकार, छन्द, आगम और तर्क के सर्वोपरि ज्ञाता थे । अपने समकालीन पाखण्ड को परास्त करने में दोनों मुनियों को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई थी। रूपक इस प्रकार है--
भुजंगप्रयात 'मुनिनाथ साथे, सह साधु सारे । मुनि धन्न धोरी, विजय रत्थ धारे। गुरुपाय सेवे, बड़ा विज्ञ धारी । रहे हाजरे युक्त भक्ति सुधारी ।। गिरा भारती कण्ठ, आभरण सोहे । बनी शान्त मुद्रा, दमे कोई मोहे ।। शशि सौम्य कान्ति, निरालम्ब भासे । प्रतिबन्ध नाहीं, ज्युही वायु रासे।। जयो पुन्यवंता गुरुभक्ति कारी। रहे रात-दिवसे वपुबिम्ब धारी ।। मुनि सेवना पार नावे कहता । हुवे पूज्य लोके तिहुं को महंता ।। ___कविवर ने जहां एक ओर श्रीमद् की सेवा में संलग्न अपने सहचारी मुनियों को बड़भागी कहा है, उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने वनदीक्षित बालमुनि श्री मोहनविजयजी
(शेष पृष्ठ ३४ पर)
वी.नि.सं. २५०३
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org