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श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : एक जीवन-गाथा
बसन्तीलाल जैन
यति जीवन
श्री प्रमोदसूरिजी श्री रत्नविजय जैसे सुयोग्य शिष्य को पाकर बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने अपने नूतन शिष्य की शिक्षा दीक्षा की समुचित व्यवस्था की। उस समय खरतरगच्छीय यति धी सागरचंद्रजी अपनी ज्ञानगरिमा के लिए विश्रुत थे अतः पूज्य गुरुदेव ने अध्ययनार्थ श्री रत्नविजयजी को यति श्री सागरचन्द्रजी के पास भेजा। छह वर्ष तक आप श्री सागरचन्द्रजी की सेवा में उनके साथ रहे और इस अवधि में व्याकरण, न्याय कोष, काव्य, अलंकार आदि का विशेष अध्ययन करके अधिकारी विद्वान बने । चरित्र तो आपके पास पहले से था ही और अब आप विद्वान बन गये । सोने में शुद्धता तो थी ही अब सुगन्ध भी आ गई। योग्यता की परख करके श्री हेमविजयजी महाराज ने संवत् १९०९ वैशाख शुक्ला ३ को आपको बड़ी दीक्षा प्रदान की और सन्यास पदवी से विभूषित किया।
प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी अस्सी वर्ष तक जीवित रहे। गृहस्थ जीवन के इक्कीस वर्ष, यति जीवन के इक्कीस वर्ष और साधु जीवन के अड़तीस वर्ष इस प्रकार कुल अस्सी वर्ष होते हैं । इन अस्सी वर्षों का लेखा-जोखा यहां प्रस्तुत है। प्रारंभिक इक्कीस वर्ष
वि.सं. १८८३ पौष शुक्ला सप्तमी को भरतपुर (राजस्थान) में पूज्य गुरूदेव का जन्म हुआ। श्रीमती केसरीबाई आपकी मां थीं और श्री ऋषभदासजी पारख आपके पिता। श्री माणिकचन्दजी आपके ज्येष्ठ भ्राता थे और प्रेमाबाई लघुभगिनी। आपका जन्म नाम रत्नराज था।
बचपन से ही आप बड़े बुद्धिमान थे, इसलिये दस साल की उम्र तक लौकिक शिक्षा में कुशल हो गये। बचपन से ही आप बड़े विनयी थे और वैराग्य भाव से ओतप्रोत थे। आपने अपने बड़े भाई के साथ केसरियाजी प्रभृति तीर्थों की यात्रा भी की। फिर आपने अपने बड़े भाई के साथ व्यापारार्थ सिंहलद्वीप-श्रीलंका को प्रस्थान किया । धनोपार्जन कर वापस लौटने के पश्चात् मातापिता की सेवा भक्ति की। उनके देहावसान के बाद आप धर्मध्यान से प्रवृत्त हुए।
उसी समय संवत् १९०२ में श्री प्रमोदसूरिजी महाराज का भरतपुर में आगमन हुआ। उनके वैराग्य रसपूर्ण व्याख्यानों से आप बड़े प्रभावित हुए । संसार की असारता, जीवन, की नश्वरता, वैभव की क्षणिकता पूरी तरह आपकी समझ में आ गई। इसी ज्ञान गर्भित वैराग्य से प्रेरित होकर आपने पूज्य गुरुदेव के सामने अपनी संसार व सांसारिक विषयों के प्रति हार्दिक अरुचि प्रकट की व दीक्षा दान की याचना की। गुरुदेव ने योग्यता की परख करके वि.सं. १९०४ वैशाख शुक्ला पंचमी को श्री हेमविजयजी से यति दीक्षा दिलवाई व श्री रत्न विजय नाम रखा ।
संवत् १९१२ के जोधपुर चातुर्मास में श्री पूज्य श्री देवेन्द्र सूरि महाराज आपकी विद्वत्ता से प्रभावित हुए और उन्होंने अपने बाल शिष्य श्री धीरविजयजी को अध्ययनार्थ आपको सौंप दिया। पांच वर्ष तक आपने धीरविजयजी और इक्कावन यतियों को विद्याभ्यास करवाया । धीरविजयजी को श्री पूज्य पद दिलाकर धरणेंद्रसुरिजी के नाम से प्रसिद्ध किये। जोधपुर और बीकानेर के राजाओं से घरणेंद्रसूरिजी ने उस समय आपको दफतरी पद दिया । दफतरी पद एक महत्वपूर्ण पद है । इस पद की प्राप्ति उस समय एक प्रकार का सम्मान समझी जाती थी। आपने धरणेद्रसूरिजी की बात मानली। साल भर उनके साथ रहे और फिर सं. १९२२ का चातुर्मास आपने २१ यतियों के साथ स्वतंत्र रूप से जालोर में किया। श्री धरणेन्द्र सूरि आपसे अलग रह नहीं सकते थे। अतः संवत् १९२३ के घाणेराव चातुर्मास में आपको फिर से बुला लिया।
राजेन्द्र-ज्योति
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