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प्रतिष्ठा महोत्सव एवं अंजनशलाका महोत्सव कराये । खाचरोद के श्री संघ ने खाचरोद में हीरक जयन्ती समारोह का आयोजन करके आप श्री को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। आप श्री ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल की स्थापना की। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ भी नमणीनी तीर्थ एवं यी भांडवाडी तीर्थ में आपके सदुपदेश से श्री संघों ने तीर्थोद्धार किया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आप श्री की शुभ निश्रा में गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महा. साहब की अर्द्ध शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया जिसमें करीब-करीब ४० हजार जैन अजैन धर्मप्राण श्रावकश्राविकाओं ने उत्साहपूर्वक योगदान दिया ।
गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वर महाराज साहब के दिव्य ज्योति में लीन हो जाने के पश्चात् आपने गुरुदेव के रचित ग्रन्थ "श्री राजेन्द्र अभिधान कोष" को ७ भागों में प्रकाशित करवाया। जिससे देशविदेश में जैन आगम ग्रंथस्थ जिनवाणी का अद्वितीय प्रचार हुआ । और अनेक विद्वान् व्यक्तियों ने इस ग्रन्थ का स्वागत के साथ बहुयान किया 1
आपने कई नगरों में निर्विघ्न चातुर्मास किये और सांसारिक भव्य जीवों को सदुपदेश द्वारा उद्बोधन दिया । आप श्री ने अपने संयमकाल में कुल ६४ चातुर्मास किये ।
वेत्ता माने जाते थे । आपको विद्याभूषण नामक साहित्यिक पदवी भी प्राप्त हुई। आप एक अच्छे कवि भी थे। आप में सेवा भाव, परोपकार, निर्भयता, विनम्रता, गंभीरता आदि गुणों का चरम विकास हुआ था । संवत् १९९० में राजनगर अहमदाबाद में जो विशाल साधु सम्मेलन हुवा था उसमें आपके गंभीर ज्ञान से और आपके विनम्र भाव से सारा साधु-समाज प्रभावित हो गया था । यहां तक कि इस साधु सम्मेलन में जिन प्रामाणिक नौ आचार्यों की सूची तैयार की गई थी उसमें चौथे नम्बर पर आपका नाम लिखा गया था। इस प्रकार आपने अपने विशाल और गंभीर ज्ञान से तथा विनम्रता आदि गुणों से विपक्षियों के दिल को भी जीत लिया था। आप विशुद्ध संयमी जीवन जीते थे और संयमी साधुओं से ही विशेष स्नेह रखते थे ।
दीक्षा के उपरान्त आपने कई साहित्यिक, सामाजिक और धार्मिक कार्य किये । प्रतिष्ठाएं कराई और मुमुक्षुओं को दीक्षा
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संवत् १९८० में आप श्री को जावरा में उपाध्याय पद पर सुशोभित किया गया एवं संवत् १९९५ में आप श्री को आहोर में आचार्य पद से अलंकृत किया गया। करीब १०-२० वर्षों तक अपने आचार्य पद के अनुरूप कार्य करके धर्माराधना द्वारा कई सांसारिक जीवों का उद्धार किया और जैन धर्म का मार्गानुसरण करने का प्रतिबोध दिया।
नियति के कराल काल से पौष सुदी ३ संवत् २०१७ दिनांक २१-१२-६० को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में एक युग का अन्त हो गया । आपकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़कर महाप्रयाण कर गई और इस तरह एक जैन जगत का चमकता सूर्य अस्त हो गया । इस प्रकाश पुञ्ज के अस्त हो जाने से जैन जगत में अंधेरा छा गया । जगह-जगह आप श्री के शोक में शोक सभा मनाई गई, श्रद्धांजलियां दी गईं। अष्टा महोत्सव के आयोजन किये गये ।
( आचार्य विजय भूपेन्द्रसूरिजी पृष्ठ ५० का शेष )
आज मोहनखेड़ा तीर्थ एक विशाल धर्म केन्द्र बन गया है, जिसकी पवित्र मिट्टी को शिरोधार्य करने के लिये प्रति वर्ष अनेकों यात्री यहां पर यात्रार्थ पधारते हैं एवं अपने जीवन को सार्थक बनाते हैं, और भविष्य में भी अपने जीवन को धन्य बनाते रहेंगे एवं स्वपर के कल्याणार्थ उनका मार्गानुसरण करते रहेंगे ।
भी प्रदान की। मुनि दानविजयजी मुनि श्री कल्याणविजयजी मुनि श्री तत्त्वविजयजी मुनि श्री चारित्रविजयजी आपके सुशिष्य थे । आपने "सिन्दर प्रकर" का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है। श्री चन्द्रराज चरित्रम् आपकी श्रेष्ठतम रचना है । इतना ही नहीं अभिधान राजेन्द्र का संशोधन भी आपश्री व मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने किया था । पालीताना, गिरनार आदि तीर्थों की ससंघ यात्रा के लिए आपने धनिकों को प्रोत्साहित किया व संघ निकलवाकर धन का सदुपयोग करवाय। ।
इस प्रकार अनेक धर्म कार्य करते आप संवत् १९९३ में आहोर नगर पधारे। इसी नगर में माघ सुदी ७ के दिन आपने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया और आप स्वर्ग सिधारे । आहोर के संघ ने आपका जो समाधि मंदिर बनाया है। वह माज भी आपकी स्मृति ताजी करता है ।
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