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________________ अरिहंत पद ____ जो अपने आत्म-शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं, उसे "अरिहंत" कहते हैं। अरिहंत एवं सिद्ध अवस्थाओं में शरीर-त्याग के सिवा अधिक अन्तर नहीं होता। किन्तु मिथ्या-दृष्टि से ले कर आत्मा अपने ही विकारों के साथ युद्ध करती अपनी सद्भावना एवं निष्ठा के बल पर कर्म-शत्रुओं को नष्ट करती, इस आध्यात्मिक युद्ध में आत्मा विकास के सोपान स्वरूप इन गुणस्थानों पर क्रमशः चढ़ती रहती है। संघर्ष को विकास का मूल कहा गया है । आध्यात्मिक संघर्ष में आत्मा की निर्मलता की अभिवृद्धि होती है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में भी साधारण संघर्ष के समान तीन अवस्थाएँ होती हैं-पहले कभी हार कर आत्मा पीछे गिरती है, दूसरी अवस्था में प्रतिस्पर्धा में डटी रहती है तथा तीसरी अवस्था में विजय को वरण करती है। उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा पहले से सीधे तीसरे गुणस्थान में जा सकती है और अवक्रान्ति करने वाली आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से गिर कर दूसरे-तीसरे गुणस्थान में पहुंच सकती है। मोह भावों का अंतिम आक्रमण-प्रत्याक्रमण नवें, दसवें, गुणस्थानों की प्राप्ति के समय होता है । जहां समस्त मोह संस्कारों का संपूर्ण क्षय कर लेने वाली आत्मा दसवें से बारहवें गुणस्थान में छलांग लगा देती है और वहां से अपने चरम लक्ष्य की उपलब्धि असंदिग्ध कर लेती है । इसके विपरीत मोह संस्कारों का शमन मात्र करने वाली आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करे ही, यह आवश्यक नहीं है, वह भी अपनी उत्कृष्टता से बारहवें गुणस्थान में पहुंच सकती है, परन्तु जो आत्मा एक बार ग्यारहवें गुणस्थान में चली जाती है, उसका पुन: पतन निश्चित रूप से होता है। दर्शन एवं चारित्र मोहनीय कर्म की प्रभावशीलता अथवा प्रभावहीनता के आधार पर ही, आत्मा की अवक्रान्ति अथवा उत्क्रांति निर्भर रहती है। मोह संस्कारों का समूल क्षय सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकाग्र साधना को मोक्ष-मार्ग कहा है । कर्म-मुक्ति है, मोक्ष है । कर्मों में सर्वाधिक शक्तिशाली मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिये अपने ज्ञान और अपनी निष्ठा को सम्यक्त्व की भूमिका पर लाने की जरूरत पड़ती है। ज्ञान और आस्था के सम्यक् बन जाने पर सद्वृष्टि का विकास होता है। सद्दृष्टि वह है जो जड़ को जड़ और चेतन को चेतन तद्रूप स्पष्ट झलकाती है। इसके माध्यम से आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहिचान कर परमात्म स्वरूप का दर्शन करती है। जैसे दर्शन मोह के मन्द होने पर सदष्टि का विकास होता है, वैसे ही चारित्र मोह के मन्द होने पर व्रतनिष्ठा का जन्म एवं विकास होता है। दृष्टि सम्यक् होती है तो सम्यक् चारित्र की आराधना का क्रम भी प्रखर बनता है । एक छोटे से व्रत को लेकर महान साधुव्रत का परिपालन करते हुए आत्मा जब रत्नत्रय की उपासना में सुस्थिर बन जाती है तब वैसी विकासशील आत्मा मोह के संस्कारों का समूल क्षय करती है। उपशम की अपेक्षा क्षय की दिशा में पग बढ़ाना महत्वपूर्ण होता है, इसीलिये ऐसी आत्मा एक दिन अपना पूर्ण उद्धार कर लेती है। जिसे परमात्म स्वरूप का वह दर्शन करती है उसी परमात्म स्वरूप का वह वरण भी कर लेती है। तब आत्मा सदा सर्वदा के लिये अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस आध्यात्मिक युद्ध में कर्मों के आक्रमण-प्रत्याक्रमण आत्म शक्तियों को गंभीर चुनौती देते हैं। यद्यपि सतत जागरुकता के बावजूद कई बार कठिनाइयों से उसमें व्यग्रता और आकुलता भी उत्पन्न हो जाती है। तथापि आत्म-विश्वास और साहस के बल पर गुणस्थानों का एक-एक सोपान चढ़ती हुई वह रणभूमि में डट जाती है। भावना एवं साधना की दृढ़ता तथा उत्कृष्टता तब उस आत्मा को गुणस्थानों की उच्चतर श्रेणियों में चढ़ाती रहती है, जिसके अन्तिम परिणामस्वरूप उसे कर्म-शत्रुओं पर विजय की आनन्दानुभूति होती है । वह अरिहंत बन जाती है। समझ कर आगे बढ़ें आत्म विश्वास की क्रमिक अवस्थाओं-गुणस्थानों को जो भलीभांति समझ लेता है, वही आध्यात्मिक समर के मर्म को समझता जाता है। आत्मिक शक्तियों में आविर्भाव की, उनके शुद्ध कार्य रूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्थाएं ही 'गुणस्थान" हैं । आत्मा की विकास यात्रा के सारे पड़ाव अविकास से विकास की ओर चौदह गुणस्थानों में देखे जा सकते हैं तथा प्रतिपल गुणस्थान कौनसा है इसका मूल्यांकन किया जा सकता है। आत्म-विकास के सोपान गुणस्थानों का यह सिद्धान्त इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है तथा जो सद्विवेक एवं सप्रवृत्ति के साथ नीचे से ऊपर के सोपानों पर अपने चरण बढ़ाते रहते हैं, वे अन्ततोगत्वा अपने जीवन के चरम लक्ष्य को अवश्य उपलब्ध कर लेते हैं । एक ही तालाब का जल गौ और साँप दोनों पीते हैं, परन्तु गौ में वह दुध और साँप में विष हो जाता है। इसी प्रकार शास्त्रों का उपदेश भी सुपात्र में जाकर अमृत और अपात्र या कूपात्र में जाकर विष-रूप परिणमन करता है। -राजेन्द्र सूरि ७८ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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