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________________ है। वह सिर्फ उत्क्रान्ति की ही चर्चा करता है, पतन की नहीं। सरल और स्पष्ट शब्दों में यदि कहना चाहें तो कह सकते हैं कि डारविन का विकासवाद बन्दर से मानव बनने की शक्ति को तो स्वीकार करता है लेकिन मानव से बन्दर बनने को स्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, उसके इस विकासवाद में आत्मा को कोई स्थान नहीं दिया गया है और आत्मा को स्थान नहीं देने से पुनर्जन्म, कर्म आदि के संबंध में विचार नहीं किया गया है । इस तरह डारविन का विकासवाद अधरा है, जबकि जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास में आत्मा को प्रमुख स्थान दिया गया है और आत्मा को प्रमखता देने से पूनर्जन्म, कर्म इत्यादि विचार आत्मा से जुड़ा हुवा है। इस तरह डारविन का सिद्धान्त पुद्गल निर्मित शरीर के अंगोपांग से संबंधित है, जबकि जैन दर्शन का विकास का सिद्धान्त अरिहन्त निर्देशित आत्मा के आध्यात्मिक विकास-क्रम से संबंधित है और वह आत्मा के गुणों को स्पर्श करता है एवं उसकी उत्क्रांति तथा अवनति दोनों का विचार करता है । इस प्रकार जैन दर्शन में आत्मा उत्थान-पतन के अनेक चक्र अनुभव करने के पश्चात् आगे बढ़ती है और अन्ततोगत्वा मुक्ति पद प्राप्त करती है । अब हम तुलनात्मक दृष्टि से आत्मा के आध्यात्मिक विकास क्रम पर संक्षेप में विचार करेंगे। जैनागमों में आत्म-विकास का क्रम बहुत ही सुव्यवस्थित रूप में मिलता है। उनमें आत्मिक-स्थिति अथवा जीवनविकास की चौदह भूमिकाएं बतलाई गई हैं जो "गुणस्थान" के नाम से संबोधित हैं। जैन दर्शन में आत्मा के आध्यात्मिक विकास क्रम के लिए चौदह विभाग किए गए हैं अर्थात् मोक्ष महालय में प्रवेश करने के लिए चौदह सीढ़ियां जैनागमों में वर्णित हैं। किन्तु ये सीढ़ियां ईंट, चूने या पत्थर की बनी हुई नहीं हैं अपितु आत्मिक-विकास की ओर ये सीढ़ियां चौदह ही हैं न कम न ज्यादा । जैसे-चक्रवर्ती के चौदह रतन होते हैं, पन्द्रहवां नहीं होता, क्लास सोलह होती हैं, सत्रहवीं नहीं, तिथि पन्द्रह होती हैं उसी प्रकार आत्मविकास के लिए भी चौदह अवस्थाएं (गुणस्थान) है जिनके नाम समवायांगसूत्र एवं द्वितीय कर्म ग्रन्थ की गाथा में निम्नलिखित हैं: चोद्दस जीव ठाणा पण्णत्ता-तं जहा मिच्छ दिट्ठी सासायण सम्मदिट्ठी, सम्ममिच्छ दिट्ठी, अविरय सम्मदिट्ठी, विरयाविरए पमत्त संजए, अप्पमतसंजए, नियट्ठी-अनियट्टिबायरे, सुहुमसंपराए उवसमए वा खवए वा, उवसंतमोहे, सजोगी केवली, वा अजोगी केवली। गुणस्थान १४ वां मिच्छे सासण, मीसे, अविरय पमत्त अपमत्ते मिअट्ठी अनिअछि, सुहुमुवसम-खीण सजोगि अजोगि गुणा -कर्म ग्रन्थ द्वितीय, गाथा-२ (१) मिथ्यात्व गुणस्थान (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (४) अवरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (५) देशविरति गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) निवृत्तिवादर गुणस्थान (९) अनिवृति बादर गुणस्थान (१०) सूक्ष्म सांप राय गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगी केवली गुणस्थान (१४) अयोगी केवली गुणस्थान उपर्युक्त ये चौदह गुणस्थान ही आध्यात्मिक विकास के चौदह अनमोल रत्न हैं। जैन दर्शन में इस आध्यात्मिक विकास-क्रम का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । क्रम का परिबोध होने से आत्मा की उत्कर्ष-अपकर्षमय अवस्थाओं का परिज्ञान हो सकता है और इससे आत्म-विकास की साधाना में बड़ी सहायता मिलती है। जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाएं बतलाई गई है, किन्तु जैन दर्शन में आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थानों का जितना सूक्ष्म, सुन्दर और रोचक ढंग से विस्तृत विवेचन किया गया है उतना अन्यत्र नहीं। "गुणस्थान" से आशय जैन दर्शन में न तो भौगोलिक स्थान से है, और न एवरेस्ट पर्वत से है वरन् गुणस्थान का संबंध आत्मा से है। “गुणस्थान" शब्द जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । गुणस्थान दो शब्दों से मिलकर बना है-गुण और स्थान । "गुण" से तात्पर्य न सांख्य दर्शन के त्रिगुण-सत्व, रजस् और तमस् से है और न साहित्य के माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणों से है अपितु जैन दर्शन में "गुण" से तात्पर्य आत्मा के गुणों से या आत्मा की शक्तियों से है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मा के गण हैं । “गुणस्थान" में दूसरा शब्द है "स्थान" । "स्थान" अर्थात् उन गणों के विकास करने की अवस्था । ___ इस प्रकार "गुणस्थान का शाब्दिक अर्थ हुवा “आत्मा के गुणों के विकास करने की विविध अवस्थाएं" । एतदर्थ जैनागमों में आध्यात्मिक विकास का क्रम बताने वाले गुणस्थानों का वर्णन प्रतिपादित है। जैसे मानव की विविध अवस्थाएं होती हैं और उसमें कम होता है-शैशवास्था, युवावस्था, वृद्धावस्था। उसी तरह आध्यात्मिक विकास में भी कम होता है-पहली अवस्था, दूसरी अवस्था इत्यादि। "अवस्था को स्थिति, सोपान, भूमिका आदि भी कह सकते हैं। राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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