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आत्म विकास का तुलनात्मक अध्ययन
साध्वी सुदर्शनाश्रीजी, एम. ए.
पाहा
चावोक को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन मोक्ष को आत्म विकास की सर्वोच्च स्थिति मानते हैं, किन्तु मोक्ष तक पहुंचने के पहले उसका क्रम-विकास कैसे होता है, इस पर विभिन्न दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न विचार दृष्टिगत होते हैं। ___ आत्मा के आध्यात्मिक विकास के पूर्व भौतिक-विकास के संबंध में जैन दर्शन की क्या मान्यता है इस पर भी थोड़ा जिक्र कर देना अप्रासंगिक न होगा।
जैनागमों में जिस तरह आध्यात्मिक विकास क्रम का विवेचन किया गया है, उसी प्रकार भौतिक विकास का भी जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति, तिलोयपण्णत्ति, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में सुस्पष्ट एवं क्रमबद्ध वर्णन पाया जाता है।
वैसे तो, विकास के विभिन्न प्रकार हैं। उदाहरण के तौर पर शरीर से संबंधित विकास, शारीरिक विकास, मन से संबंधित विकास, मानसिक विकास और आत्मा से संबंधित विकास, आत्मिक विकास इत्यादि । किन्तु मुख्य रूप से व्यक्ति का विकास दो तरह से हो सकता है-एक तो भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक । जैनदर्शन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास को मानता है।
भौतिक विकास याने उत्कर्ष-अपकर्षमय काल चक्र । यह काल चक्र जैन दर्शन में अनवरत क्रम से गतिशील माना गया है। इस अनवरत काल चक्र (भौतिक विकास) को "उत्सर्पिणीकाल" और अवसर्पिणी काल दो भागों में विभक्त किया गया है ____ इस तरह जैन दर्शन के अनुसार उत्सर्पिणी को विकासोन्मुख काल कहते हैं । इसमें मनुष्य की आयु, बल, शक्ति, धन, सुख आदि क्रमशः अपना विकास करते रहते हैं। अवसर्पिणी को ह्रासोन्मुखकाल कहते हैं। इसमें मनुष्य का शरीर, बल, शक्ति आय
आदि का क्रमगत ह्रास होता रहता है। इस प्रकार समय के अनुसार मनुष्य का क्रम-विकास (भौतिक विकास) होता रहता है। जैसे आध्यात्मिक विकास की चौदह श्रेणियां विभाजित हैं वैसे ही भौतिक विकास (उत्कर्ष-अपकर्ष काल) को भी छह-छह वर्गों में बांटा गया है। अवसर्पिणीकाल:-(१) सुषम सुषम (२) सुषम (३)
सुषमा दुषम (४) दुषम सुषम (५)
दुषम (६) दुषमा दुषम । उत्सर्पिणीकाल:--(१) दुषमादुषम (२) दुषम (३)
दुषमा सुषम (४) सुषमा दुषम (५)
सुषम (६) सुषमा सुषम । इस तरह इस पूरे काल चक्र (भौतिक विकास) को बारह आरों में वर्गीकृत किया गया है। यह भौतिक विकास अनादिकाल से चला आ रहा है एवं अनन्त काल तक चलता रहेगा।
आधुनिक विज्ञान भी विकासवाद को मानता है, लेकिन वह आध्यात्मिक विकास को नहीं मानता । इस संदर्भ में पाश्चात्य दार्शनिक डारविन का विकासवाद उल्लेखनीय है । उसके विकासवाद में सूक्ष्म जन्तुओं में से मनुष्य तक के स्वरूप का निर्माण कैसे हुवा । इस संबंध में प्रकाश जरूर डाला गया है किन्तु सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मानव पर्यन्त जो विकास क्रम बताया गया है उसमें महज विकास का वर्णन है, पतन के लिए कोई स्थान या अवकाश नहीं है । किन्तु जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास में ऐसी स्थिति नहीं है । जैन दर्शन में विकास का प्रारंभ होने के बाद भी पतन के प्रसंग अनेक बार आते हैं और आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचकर भी पतित हो जाती है । अतः जैन दर्शन का आत्म-विकास का सिद्धान्त आरोह-अवरोह का है, जबकि डारविन का विकासवाद आरोह का होने के कारण एकांगी
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