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दोहद-वर्षायोग (१८७३ ई.) में लिखा था । मूल 'विनतिपत्र' विस्तृत है, अतः यहां हम उसके कुछ अंश ही उद्धृत कर रहे हैं :
'परमगुरु प्रण, सदा, रतनावत जस भास । राजेन्द्रसूरि रत्नगुण, गच्छपति गहर निवास ।। ना कछु चित्त विभ्रम पणे, ना कछु लोकप्रवाह । परतिख गुण सरधा विषे, धारित भयो उछाह ।। मुनि जंगम कल्पद्रुमा, वांछित पूरण आस । भव-भव के अघ हरन को, फल समकित दे खास ।।
उपकारी अवतार हो, प्रभु तुम प्रवर निधान । भविपंकज पडिबोहने, विकसित उदयो भान ।। त्यागी बड़भागी तुमे, सूरवीर ससधीर । जिनशासन दिग्विजयति, वादीमद-जंजीर ।। वादि-दिग्गज कैहरी, कुमतिन को करवाल ।
स्याद्वाद की युक्तियुक्त, बोधे सहु मति बाल ।। सागर समता के सही, उदधि जिसा गंभीर । अडग मेरु जिम आचरहि, पंचमहावत धीर ।। अप्रमत्त विचरे दुनि, भारंड परे भविकाज । निरलेपी-निरलालची, पय कमलोपम आज ।।
कविवर ने श्रीमद् के साथ रहते हुए जिस गुण-वैशिष्ट्य का अनुभव किया, उसकी उन्होंने अपने "विनतिपत्र" में बड़ी काव्योचित विवृति की है। इस दृष्टि से “विनतिपत्र" एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो श्रीमद् के महान व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही उनकी समकालीन सांस्कृतिक स्थितियों का भी विश्वसनीय विवरण प्रस्तुत करता है। "विनतिपत्र" में कविवर ने श्रीमद् से कृपा-पत्र की अपेक्षा की है, लेकिन सम्यक् मुनि-मर्यादा में; उन्होंने लिखा है--
"कृपापत्र मुनिराज के देने की नहीं रीत। अनुमोदन प्रभु राखिने, उवरासो समचित॥ । कृपा महिर भवि जीव पै, राखो धर्म सनेह ।
तेहथी जादा राखसो, जिम भुविशस्य सुमेह ।। यद्यपि साध्वाचार में परस्पर पत्र-लेखन पहले निषिद्ध था तथापि तब भी क्षमापनार्थ ऐसे 'विनतिपत्र" अपने श्रद्धास्पदगच्छनायक को देने की रीत थी। ये विनतिपत्र खूब सजावट के साथ लिखे जाते थे। इन्हें तैयार करने में प्रचुर चित्रकारीयुक्त शोभन प्रसंग-चित्र भी अंकित किये जाते थे। स्थानीय विवरण, संघ-समदाय, धर्मक्षेत्र, ऐतिहासिक विशेषताएँ, माहित्यिक एवं धार्मिक गतिविधियों का ब्यौरे इन विनतिपत्रों में समाविष्ट होते थे। कई संग्रहालयों में इस तरह के विनतिपत्र उपलब्ध हैं, जो अध्ययन-अनुसंधान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, और जिनका विशद अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। कविवर प्रमोदरुचि के 'विनतिपत्र" को भी व्यवस्थित पाठालोचन और सम्पादन के साथ प्रकाशित किये जाने की आवश्यकता है।
कविवर के "विनतिपत्र" में अनेक उपयोगी विषयों का समावेश है। साध्वाचार के पगाम सज्झाय, गौचरी के नियम दिनचर्या,
समता, हिम्मत, विहार इत्यादि अनेक विषयों का इसमें उल्लेख है। गच्छाधिप और उसके आज्ञानुवति मुनिगण के पारस्परिक व्यवहारसम्बन्धों का भी विवरण इसमें है। इस सबके उपरान्त कठोर, अविचल मनिचर्या में निरत एक सहृदय कवि के सरस कवित्व की चन्दन सुरभि की गमक भी इसमें है . श्रीमद् के विषय में प्रमोदरुचि लिखते हैं
पंकज मध्य निगूढ़ रहयो अलि चाहे दिवाकर देखनकुं । मेघ-मयूर मराल सुवांछित, पद्म-सरोवर सेवनकुं। सम्यग् दृष्टि सुदृष्टि थिरादिक, ध्यावहि व्रत सुलेवनकुं । मनिनाय राजेन्द्र गणाधिप के, सहुसंघ चहे पय सेवनकुं ।। पीरहरै षट काय कृपानिधि, भाव उभे धर संजम नीको । बाहिर-अन्तर एक बाबर, पोर हरै भव फेरज नीको ।। आप तरै पर तारक जंगम है उदधि तरणीवर नीको । सुरविजय राजेन्द्र यतिसम, संपइ और न गुरु अवनीको ।। __ श्रीमद् में आदर्श मुन्युपम समग्र गणों का समवेत योग पाकर ही कविवर ने श्रीमद् राजेन्द्रसूरि से ही दीक्षोपसंपद् स्वीकर की थी। यति दीक्षा के उपरान्त वे किसी योग्य गरु की तलाश में अविश्रान्त प्रयत्नशील रहे थे।
दीक्षोपसंपद् ग्रहण करने के पश्चात् कविवर को श्रीमद् की सेवा का पर्याप्त अवसर मिला था । मरुधर की ओर विहार करने से पहले १८७३ ई. तक वे श्रीमद् के साथ छाया की भांति रहे । १८७१ ई. में श्रीमद् ने मांगीतुंगी में आत्मोन्नति के निमित्त छह माह की कठोर तप-आराधना की थी। उस वर्ष कविवर ने श्रीमद् की अतीव भक्ति की, वे निरन्तर उनकी छत्रछाया में रहे तथा ज्ञान, ध्यान और विशुद्ध मुनिचर्या द्वारा आत्मोन्नति की परम साधना का अमूल्य मार्ग-दर्शन लेते रहे । श्रीमद् की निश्रा में उन्हें विशिष्ट आत्मतोष था। १८७९ ई. का वर्षावास श्रीमद् के साथ न होने के कारण उनमें श्रीमद् की दर्शनउत्कण्टा और विह्वलता बनी रही। धर्म-वात्सल्य की यह विकलता अनेक साधक शिष्यों में प्रायः देखी गयी है; यथा--
'एह गरु किम बीसर, जहसुं धर्म सनेह । रात-दिवस मन सांभरे, जिम पपइया मेह ।। सद्गुरु जाणी आपसु, मांड्यो धर्मसनेह । अवरन को स्वप्नान्तरे, नवि धारु ससनेह ।।
मास वरस ने दिन सफल, घड़ीन लेखे होय । श्रीगुरुनाथ मेलावडो, जिणवेला अम होय।। धन्न दिवस ने धन घड़ी,धन बेला धन मास ।
प्रभु-वाणी अम सांभला बसी तुमारे पास ।। स्नेह भलो पंखेरुआ, उड़ने जाय मिलंत ।
माणस तो परबस हुआ, गुरुवाणीन लहंत ।। कविवर में कई भाषाओं में काव्य-रचना की क्षमता थी । छन्द अलंकार इत्यादि काव्यांगों पर भी उनका अच्छा अधिकार था । मेवाड़ के राजवंशों के सम्पर्क में रहने के कारण उन्हें दरबारी सामन्तों
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