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किया करती थीं। आपने सिद्धान्त कौमुदी, न्याय और काव्य ग्रंथों का गंभीर अध्ययन किया । आपकी शिष्याओं में पार्वतीश्रीजी साध्वीश्रीजी प्रेमधीजी एवं मानश्रीजी प्रमुख हैं।
प्रवर्तनीजी श्री प्रेमश्रीजी ___ आहोर के पास कांबा ग्राम के शाह उमाजी पोरवाल की धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई की कूख से सं. १९१५ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को चतुराबाई का जन्म हुआ। बचपन से धार्मिक कार्यों में आपकी विशेष रुचि थी। बचपन से ही आपने देव-वंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं का अध्ययन कर लिया। सं. १९२९ फाल्गुन शुक्ल ५ के शुभ दिन आपका विवाह हरजी निवासी शाह मनाजी बीसा पोरवाल के सुपुत्र भूताजी के साथ हुआ। परन्तु अशुभ कर्मों के उदय से अल्प समय में ही सं. १९३९ आषाढ़ कृष्णा ९ के दिन उनके पति का देहावसान हो गया और आपको असह्य वैधव्य का दुःख सहना पड़ा।
आप परम विदुषी महत्तारिका गुरुणीजी विद्याश्रीजी के संपर्क में आई। वैराग्य भावना बढ़ती ही गई और फिर हरजी में सं. १९४० आषाढ़ शुक्ला ६ के दिन शुभ लग्न में महत्तारिका विद्याश्रीजी ने आपको दीक्षा देकर साध्वीजीश्री "प्रेमश्रीजी" नाम रक्खा । दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रेमश्रीजी ने अपना चित्त अप्रतिहत गति से निरन्तर धार्मिक अध्ययन में लगाया। आपको सब प्रकार से योग्य समझ कर आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ला १५ के दिन दीक्षा दी । आपने साध्वी समाज को शिक्षा की ओर प्रोत्साहित किया एवं मर्यादापूर्वक शुद्ध क्रियाओं का सम्यक्तया पालन करके दूसरों के लिए आदर्श उपस्थित किया। ___ सं. १९६२ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को पूज्य महत्तारिका साध्वीश्रीजी विद्याश्रीजी का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया। श्री प्रेमश्रीजी ने गुरुणीजी की आदर्श सेवा की । खाचरोद में आचार्य देवेश विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने सं. १९६२ माघ शुक्ला १३ को प्रेमश्रीजी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया ।
गुरुणीजी के स्वर्गवास होने के पश्चात् आप पर साध्वी संघ का भार विशेष रूप से पड़ा। उन्हें मर्यादित रूप से चलाने के लिए पूरी देख रेख के साथ आपने अपने नाम की यथार्थता को पूर्णरूप से चरितार्थ किया। आपने मालवा, मारवाड़ व गुजरात आदि के विभिन्न स्थानों में चातुर्मास किए, वहां जप, तप, उद्यापन, सामायिक, पूजा, प्रभावना आदि धार्मिक क्रियाओं का अच्छा प्रचार किया। आपने साध्वी संघ की अच्छी अभिवृद्धि की।
प्रवर्तिनीजीश्री प्रेमश्रीजी ने वृद्धावस्था एवं शरीर अस्वस्थ होने के कारण १९८८ से बड़नगर में स्थायी निवास कर लिया । इस समय आपने अपना सारा अधिकार समीपस्थ अन्तेवासिनी श्री रायश्रीजी को दे दिया और आप स्वयं देव गुरु स्मरण में लीन हो गई। आपने अनशन व्रत धारण करके प्रभु स्मरण करते हुए आश्विन शुक्ल १२ शुक्रवार रात्रि को ३ बजे अपना क्षण-भंगुर
देह हमेशा के लिए त्याग दिया। प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी सदा धर्मध्यान में लीन रहा करती थीं। आपने अपना सारा जीवन धर्म एवं समाज के हित में ही व्यतीत किया ।
गुरुणीजी श्रीमानश्रीजी मारवाड़ के भीनमाल नगर के सेठ दलीचन्दजी ओखाजी की अर्धांगिनी नंदाबाई की कूख से वि. सं. १९१४ माघ शुक्ला १० के दिन वृद्धीबाई (बदी बाई) का जन्म हुआ। बचपन से ही आप एकान्तप्रिय थी एवं धर्म के प्रति आपका विशेष लगाव था। आपने व्यावहारिक शिक्षा माता-पिता से एवं धार्मिक शिक्षा साध्वीजी से प्राप्त की। प्रतिक्रमण, जीव-विचार, नवतत्व, दंडक, लघुसंग्रहणी, वृहत्संग्रहणी सूत्र आदि आपने सभी सीख लिए थे । पर्व दिनों में आप उपाश्रय में सामायिक लेकर कथा ग्रंथ भी बांच कर सुनाया करती थीं।
सं. १९२८ फाल्गुन कृष्णा २ के दिन आपका विवाह भीनमाल निवासी धूपचन्द्र लखमाजी भंडारी के साथ हुआ। तीन माह पर्यन्त ही गार्हस्थ्य सुख भोगने के पश्चात् अशुभ कर्मोदय से पतिदेव की अकस्मात् मृत्यु हो जाने के कारण आपको वैधव्य दुःख सहना पड़ा।
भीनमाल में विदुषी महत्तारिका गुरुणीश्री, विद्याश्रीजी का पदार्पण हुआ। गुरुणीजी के व्याख्यानों का जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा। बदीबाई के हृदय में पहले से ही वैराग्यभावना जागृत थी, उसको केवल मार्गदर्शक की आवश्यकता थी जो उन्हें गुरुणीजी से प्राप्त हुआ। सं. १९४१ आश्विन शुक्ला १० को गुरुणीजी विद्याश्रीजी ने बदीबाई को भेसवाड़ा ग्राम में दीक्षा देकर साध्वीजीश्री "मानश्रीजी" नाम दिया।
बारह वर्ष तक आपने अपनी गुरुणीजी के साथ रहकर उनकी सेवा करने के साथ साथ व्याकरण, जैन सिद्धान्त और विविध सैद्धांतिक बोलों का अभ्यास किया। आपको व्याख्यान शैली से सभी प्रभावित थे। झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ला १५ के दिन श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने आपको बड़ी दीक्षा दी।
शरीर में व्याधियां एवं नेत्र में ज्योति क्षीण होने से आपने अपना सारा अधिकार अपनी मुख्य अन्तेवासिनी साध्वीजीश्री भावश्रीजी को सौंप कर सं. १९८५ में आहोर में स्थायी मुकाम कर दिया। अन्त में समाधिध्यान वर्तते हुए सं. १९९० कार्तिक कृष्णा ६ रात्रि को साढ़े आठ बजे आपका देहावसान हो गया। आपने गुरु मर्यादा में रहकर के गुरुगच्छ की बहुत सेवा की।
आपने गच्छनायक और गुरुणीजी दोनों के स्मारक रूप में श्री मोहनखेड़ा तीर्थधाम में संघ को उपदेश देकर बहुत बढ़िया समाधि-मंदिर बनवाया । इस कार्य में श्री मनोहरश्रीजी एवं भावश्रीजी ने आपको अच्छा सहयोग दिया । गुरुणीजी श्रीमानश्रीजी सत्य और अहिंसा की उपासिका थीं। दीक्षा काल से अंतिमावस्था पर्यन्त आपने संयमधर्म को निरबाधता से पालन किया, उसमें अंशमात्र दोष नहीं लगने दिया। श्रमणि-संघ और श्राविकासंघ में आपके उपदेशों का असर आज भी ज्यों का त्यों विद्यमान है। ०
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राजेन-ज्योति
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