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विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरि और हम
ओ. सी. जैन
कृशगात, हाथ में डंडा, रूई से श्वेत केश, शरीर पर झुर्रियां लेकिन दिव्य प्रभामंडल, आत्मजयी, अमरत्व लिए, दधीचिसा मन । ऐसा व्यक्तित्व ! यह सब तस्वीर में दर्शन कर रहा हूं। ___ ज्यों ज्यों उस व्यक्तित्व का चिन्तन करता हूं, मेरे हृदय प्रदेश में वे गहराते पैठते जाते हैं।
विगत कई वर्षों से एक विचार कौंध रहा, हम श्रीमद् राजेन्द्रमूरि के अनुयायी हैं। हमें यह ज्ञात नहीं है कि यह महापुरुष अन्ततः क्या था? क्या हम परम्परागत अनुयायी हैं या सत्तचे अर्थों में । सही में श्रीमद् राजेन्द्र सूरि को सामयिक संदर्भो में समझना आवश्यक हो गया है।
महावीर क्या थे? उनकी क्या आवश्यकता थी? वे महापुरुष कैसे बन गये? वे सही में समय के उत्पादन थे, किन्तु हम उन्हें योग मानते; यह हमारी भूल है। तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें महावीर बनाया। यही स्थिति श्रीमद् राजेन्द्र सूरि के साथ थी।
स्व 'पर' में, आचार अनाचार में, भावना दुर्भावना में, वैराग्य पाखंड में व्याप्त हो गए थे। कालचक्र ने जैनधर्म को सार्थक किया। हिंसा ने जैन धर्म की अहिंसा को बल दिया, किन्तु जिन आदर्शों को जैन धर्म ने दिया वे मलीन हो गये उन्हीं की प्रस्थापना ने श्रीमद् राजेन्द्र सूरि को जन्म दिया ।
फलस्वरूप जैन धर्म के संगठन (साधुसमाज और अनुयायियों) में एक नए अनुशासन तथा संयम की स्थापना हुई। यथार्थ में जैनधर्म का मूलरूप उजागर हुआ।
संतों अथवा त्यागियों के पास इत्र नहीं होना चाहिए। इसी आधार से उन्होंने अपने को बदल दिया। जीवन पर्यंत सादगीमय, अपरिग्रही जीवन व्यतीत किया। कहा जाता है कि वे अपने पास उतना ही परिग्रह रखते थे जितना वे उठा सकते थे। महाप्रयाण पर्यंत उन्हें चश्मा की आवश्यकता ही नहीं हुई।
एक समय रतलाम जैन संघ ने समारोहपूर्वक आचार्य श्री का स्वागत कर नगर प्रवेश कराना चाहा । किन्तु उन्होंने आडम्बर के प्रति ग्लानि के कारण यह सब अस्वीकार कर दिया ।
आज त्रिस्तृतिक जैन समाज के पास गौरवपूर्ण धरोहर है वह है श्रीमद् राजेन्द्र सूरि की विरासत ! जिस पर हम इठला सकते हैं।
महाकवि तुलसी जन-जन के भक्त कवि थे और पंडितों के गुरु । भाव यह कि वे यहां से वहां तक प्रविष्ट हो चुके थे; यही बात श्रीमद् राजेन्द्र सूरि में थी। उन्होंने सामान्य जन के लिए जो लिखा वह सर्वत्र लोकप्रिय हुआ, वहीं विद्वानों, चितकों के लिए विश्व कोश का निर्माण उनका पांडित्य प्रमाणित कर गया। फिर भी उन्होंने जो लिखा स्वान्तः सुखाय ही था।
यह सच है कि उस शती में जैन धर्म में उनका सानी कोई विद्वान नहीं था। वे ज्ञान की जिस गहराई में पहुंचे ठीक वहीं साधना की ऊंचाई उन्होंने प्राप्त की। मात्र तीन घंटे निद्रा लेना। सोते उठते समय ध्यानस्थ रहना उनकी चर्या थी। वे उस शताब्दी के महापुरुष थे। आज नाम श्रवण करते एक दिव्यता की अनुभूति होती है।
(शेष पृष्ठ ७६ पर)
धर्म में व्याप्त बुराइयों का अध्ययन किया। शास्त्रों की खोज में ऋषिचिन्तन किया । शास्त्र सम्मत आधारों को लेकर उसका शुद्ध और परिमाजित स्वरूप जैनानुयायियों के समक्ष उपस्थित किया। उन्होंने नया कुछ नहीं दिया। एक आडम्बर पूर्ण आवरण चढ़ गया था, निकाल फेंका। ऐसे थे श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ।
वी. मि. सं.२५०३ /ख-२
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