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श्रीमद् का प्रमुख श्रमणी-वृन्द
साध्वीजी श्री उदयश्रीजी रक्खा । राजगढ़ से आप विहार कर दाहोद पधारी वहां सं. १९३४ माघ शुक्ल ८ को आपका स्वर्गवास हुआ।
__महत्तारिका साध्वीजी श्री विद्याश्रीजी राजगढ़ चातुर्मास काल में सं. १९३४ आषाढ कृष्णा १२ को श्रीमती नन्दीबाई की दीक्षा हुई और आपका नाम साध्वीजीश्री "विद्याश्रीजी" रक्खा गया। आपके पिता का नाम शाह देवचन्दजी पोरवाल एवं माताजी का नाम श्रीमती चुन्नीबाई था । आपके पति भोपावर निवासी श्री भगवानजी थे। विवाह के लगभग तीन वर्ष बाद ही आप विधवा हो गईं। श्रीमती नन्दीबाई की आंखों में असहनीय पीड़ा हुई, औषधोपचार से आराम नहीं होने से उन्होंने शुद्ध भावना से अभिग्रह लिया कि मेरी नेत्र पीडा शान्त हो जायगी तो मैं दीक्षा ग्रहण करूंगी। ऐसा अभिग्रह लेने के ठीक एक महीने बाद नेत्र पीड़ा शान्त हो गई। परन्तु पतिदेव की मृत्यु हो जाने से लौकिक व्यवहार को निभाया एवं तीन वर्ष बाद दीक्षा ली।
परमात्मा महावीरदेव के शासन में चतुर्विध संघ का अपना अद्वितीय स्थान है, शासन-व्यवस्था में ये चारों अंग अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। श्रमणी-संघ अपनी मर्यादानुसार ग्रामों एवं नगरों में पैदल विहार कर महिला-समाज को जितना धार्मिक भावना की ओर आकर्षित कर सकता है, उतना श्रमण संघ नहीं क्योंकि महिलाएं साध्वियों के सामने निःसंकोच होकर अपने सुख-दुख को प्रकट कर सकती हैं, व उनके सदुपदेशमय सुशिक्षा एवं वचनों को भली-भांति हृदयंगम करती हुई, कार्यरूप में परिणत कर सकती हैं। इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर आचार्य देवेश प्रभ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज साहब ने श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छ में श्रमणी-संघ की स्थापना का निश्चय किया।
साध्वीजी श्री अमरश्रीजी आचार्य देवेश ने भारी समारोह के साथ वरकाणा तीर्थाधिपति श्री पार्श्वनाथ प्रभु की छत्रछाया में सं. १९२६ फाल्गुन कृष्ण ८ के दिन विजय मुहुर्त में अतियांबाई और उनकी सखी लक्ष्मीबाई को भगवती दीक्षा देकर उनका नाम साध्वीजीश्री "अमरश्रीजी" तथा “साध्वीजी श्री लक्ष्मीश्रीजी" रक्खा। लक्ष्मीश्रीजी अमरथीजी की शिष्या हुई। इस प्रकार सौधर्मबृहत्तपागच्छ में पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पवित्र करकमलों से साध्वी संघ की स्थापना हुई।
श्रीमती अतियांबाई का आहोर निवासी सेठ टीकमजी की धर्मपत्नी मंगलाबाई की कूख से सं. १८९५ माघ शुक्ला ५ के दिन जन्म हुआ था। बचपन से ही आपने धार्मिक शिक्षण प्राप्त किया, विवाह हुआ, परन्तु दस वर्ष के बाद आप विधवा हो गईं। आपने भगवती दीक्षा लेने का निर्णय लिया और श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की श्रमणी संघ की प्रथम साध्वी "अमरोजी" बनी। मारवाड़ एवं मालवा के अनेक ग्रामों एवं नगरों में धर्म-प्रचार करती हुई सं. १९३४ में आप राजगढ़ पधारी, वहां पूज्य श्रीमद् के सान्नध्य में आप चातुर्मास के लिए रुकी। इस बीच आपने दो महिलाओं को दीक्षा देकर उनका नाम क्रमशः साध्वीजी श्री कुशलश्रीजी एवं
विनयसंपन्न साध्वीजी विद्याश्रीजी की कुशाग्रबुद्धि से गुरुणीजीश्री अमरश्रीजी पूर्ण प्रसन्न थी। आपने अपनी तीव्र बुद्धि से थोड़े ही समय में धार्मिक शास्त्रों के साथ व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि विविध विषयों का परिपूर्ण अध्ययन कर लिया एवं गुरुगम से एकादशांगी की सटीक अवगाहना की। गुरुणीश्रीजी अमरश्रीजी के स्वर्गवास होने के बाद आपने अपनी विलक्षणमति से श्रमणी संघ की बागडोर अपने हाथ में ले ली और उसे जागृत कर उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में सफलता प्राप्त की।
आपकी अद्भुत ज्ञानशक्ति से सभी विस्मित थे एवं समाज में आप सब प्रकार से प्रशंसनीय बन चुकी थी। आपको सर्वत्र योग्य समझ झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ल १५ के दिन आचार्यदेवेश ने योगोद्दहन क्रिया कराके बड़ी दीक्षा देकर "महत्तारिका" पद प्रदान किया । आपको योग विद्या से अच्छा लगाव था । अर्धरात्रि में उठ कर आप कभी पद्मासन, कभी उत्कटासन, और कभी कार्योत्सर्ग और कभी अन्यान्यासन से घंटों तक योग साधना
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