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पार्श्व और महावीर का शासन-भेद
मनि नथमलजी
भगवान पार्श्व और महावीर के शासन-भेद का विचार हम निम्न तथ्यों के आधार पर करेंगे :--
१. चातुर्याम और पंच महाव्रत--प्राग-ऐतिहासिक-काल में भगवान ऋषभ ने पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया था, ऐसा माना जाता है । ऐतिहासिक काल में भगवान पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया था। उनके चार याम ये थे-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बहिस्तात् आदान-विरमण : बाह्य-वस्तु के ग्रहण का त्याग ।। भगवान महावीर ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। उनके पाँच महाव्रत ये हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।। सहज ही प्रश्न होता है कि भगवान महावीर ने महाव्रतों का विकास क्यों किया? भगवान पार्श्व की परंपरा के आचार्य कुमार श्रमण केशी और भगवान महावीर के गणघर गौतम जब श्रावस्ती में आए. तब उनके शिष्यों को यह संदेह उत्पन्न हआ कि हम एक ही प्रयोजन से चल रहे हैं, फिर यह अन्तर क्यों ? पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का निरूपण किया और महावीर ने पांच महाव्रतधर्म का, यह क्यों? . कुमार श्रमण केशी ने गौतम से यह प्रश्न पूछा तब उन्होंने केशी से कहा-''पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड़ होते हैं । बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋज-प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं।
पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार १. स्थानांग-४/१३६ २. उत्तराध्ययन-२१/१२ ३. वही-२३/१२-१३
का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं...और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं।"
इस समाधान में एक विशिष्ट ध्वनि है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि जब भगवान पार्श्वनाथ के प्रशिष्य अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे, उसका पालन कठिन हो गया तब उस स्थिति को देखकर भगवान महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा।
भगवान पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अंतर्गत माना था ।" किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात और भगवान महावीर के तीर्थकर होने से थोड़े पूर्व कुछ साधु इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पांच हो गये।
सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को "पार्श्वस्थ" कहा है। वृत्तिकार ने उन्हें "स्वयूथिक" भी बतलाया है।' इसका तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के पहले से ही कुछ 'स्वयूथिक-निर्ग्रन्थ" अर्थात् पार्श्व-परंपरा के श्रमण स्वच्छंद हो कर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि ४. वही-२३/२६-२७ ५. स्थानांग-४/१३६ वृत्ति
मैथुन परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यते।। ६. सूत्रकृतांग-१/३/४/९. १३ । ७. क: सूत्रकृतांग-१/३/४/९/वृत्ति-स्वयूथ्या वा।
खः वही-१/३/४/१२ वृत्ति-स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः
बी. नि.सं. २५०३
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