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________________ मालवा का जैन वाङ्मय डॉ. तेजसिंह गौड़ जैन साहित्य भारतीय साहित्य में विशिष्ठ स्थान रखता है और साहित्य के विविध अंगों को जैन विद्वानों ने अमूल्य देन दी है। यद्यपि जैन साहित्य नैतिक और धार्मिक दृष्टि से लिखा गया है फिर भी उसे साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता । नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से साहित्य सृजन का कारण यह है कि जैन विद्वान सामान्य जनता के नैतिक जीवन का स्तर ऊँचा उठाना चाहते थे । इसके अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अपना साहित्य जनता की अपनी भाषा में लिखा जिस तथ्य को समझकर ही महावीर और बुद्ध ने इस दिशा में उपक्रम किये थे। पाली में उनके प्रवचन, संस्कृत में लिखे जाने वाले ब्राह्मण दर्शनों से कहीं अधिक हृदयस्पर्शी होते थे कारण जनता तक उनके पहुंचने में भाषण का व्यवधान आड़े नहीं आता था। जैन साहित्य का भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से महत्व जैन विद्वानों ने भारतीय साहित्य के विकास के प्रत्येक चरण को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। स्वयं महावीर स्वामी ने अपने उपदेश तत्कालीन सामान्य जनता की भाषा प्राकृत में दिये और इस भावना को महावीर स्वामी के शिष्यों ने निरन्तर रखा। जब प्राकृत भाषा ने लगभग सातवीं शताब्दी में साहित्यिक स्वरूप ग्रहण कर लिया तब जैन विद्वानों ने अपने साहित्य सृजन का माध्यम बदल दिया और तब से अपभ्रंश में अपना साहित्य लिखने लगे। भारतवर्ष की अनेक प्रान्तीय भाषाएं जैसे मालवी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि अपभ्रंश के मूल से उत्पन्न हुई है। पुरानी हिन्दी में जैन विद्वानों के द्वारा लिखा गया साहित्य आज भी शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है, जो हिन्दी आदि की उत्पत्ति और उनके क्रमिक विकास के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । हिन्दी से अतिरिक्त भी भारतवर्ष की अन्य भाषाओं में भी जैन विद्वानों ने साहित्य सजन किया। साथ ही साहित्यिक भाषा संस्कृत में भी इन विद्वानों ने पर्याप्त साहित्य रचना की । जैनाचार्यों की विशेषता रही है कि वे जन्म कहीं लेते हैं तथा उनकी कर्मभूमि कहीं और होती है । उनके साहित्य में उनके जीवन तथा रचनाओं के संबंध में ऐसी कोई विस्तृत जानकारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में यह पता लगाना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन से आचार्य ने कौन सा ग्रन्थ कब और कहां लिखा? फिर भी हम मालवा में बारह्वीं शताब्दी तक सृजित जैन साहित्य पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे । जैन साहित्य मालवा में लिखा गया उसको निम्नांकित भागों में विभक्त किया जा सकता है -- १. आगमिक और दार्शनिक साहित्य २. कथा साहित्य ३. काव्य ४. स्तोत्र साहित्य ५. अलंकार और व्याकरण साहित्य ६. अन्य साहित्य १. आगमिक और दार्शनिक साहित्य __ जैन साहित्य में आगमिक और दार्शनिक साहित्य का विशेष महत्व है। इसमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, छः छेदसूत्र, चार मूल सूत्र, दस प्रकीर्णक और दो अन्य सूत्र अनुयोग द्वार सूत्र और नंदी सूत्र हैं । इस शाखा को भद्रबाहु की बारह नियुक्तियों, विशेषावश्यक भाष्य, बीस अन्य प्रकीर्णकों, पयुषणकल्प, जीत कल्प सूत्र, श्राद्धजाती कल्प, पाक्षी सूत्र, वन्दितुसूत्र, क्षमणसूत्र, यतिजीतकल्प और ऋषिभाषित ने और समृद्ध कर दिया तथा इस प्रकार सूत्र संख्या चौराशी तक पहुँच गई है इस शाखा का अध्ययन प्रत्येक युग में बराबर होता रहा है तथा इस पर टीकाएं, उपटीकाएं भी अलगअलग भाषा में समय-समय पर लिखी जाती रही हैं। न केवल आगम साहित्य में वरन दर्शन साहित्य में भी उत्तरोत्तर समृद्धि हुई तथा जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया। १०६ राजेन्न-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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