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शेखावटी में जैन इतिहास
अनुसंधान की आवश्यकता
डॉ. मनोहर शर्मा
राजस्थान के झुंझनूं और सीकर जिलों के सम्मिलित भू-भाग को 'शेखावाटी' कहा जाता है । यहां पिछले समय तक कछवाहा राजपूतों की 'शेखावत' शाखा का शासन रहा, अतः इसका ऐसा नामकरण स्वाभाविक है। मध्यकाल में यह 'वागड' प्रदेश का अंग था और यहां अन्य धर्मावलंबियों के साथ जैनों की भी अच्छी बस्ती थी, जो वर्तमान में अपेक्षाकृत काफी कम है।
ऐसे अनेक प्राचीन उल्लेख प्राप्त हैं, जिनमें शेखावाटी और उसके आमधाम के कई ग्राम-नगरों का संकेत है, जो धार्मिक दृष्टि से जैन समाज के लिए दर्शनीय एवं पूजनीय थे और जहां अच्छी संख्या में श्रावक-समुदाय का निवास था । इस विषय में मर्व-प्रथम खरतरगच्छीय यग-प्रधानाचार्य गर्वावलि : जिनपालोपाध्याय आदि विरचित का निम्न अंश दृष्टव्य है--
“सं० १३७५ वैशाखवद्यष्टम्याम्, नानावदातव्रात-समुद्धृतमर्वपूर्वजकुलेन निजभुजोपाजितचारुकमला-केलिनिवासेन, मंत्रिदलकूलोत्तंगप्रतापसिंहपुत्ररत्नेन, श्री जिनशासनप्रभावनाकरणचतुरेण, सवालसाधार्मिकवत्सलेन, निःप्रतिमपुण्यपण्यशालिना सकलराज्यमान्येन, ठवकुरराज अचल सुश्रावकेन, प्रतापाक्रान्तभूतल पातिशाही श्री कुतुबद्दीन सुरत्राणफुरमाणम् निष्काप्य कुंकूमपत्रिकादानसम्मानादि पूर्वम् श्री नागपुर श्री रूणा श्री कोषवाणा श्री मेड़ता कडुयारी श्री नवहा झुंझणु नरभट श्री कन्यानयन श्री आशिकापुर रोहतक श्री जोगिणीपुर धामैना यमुनापार नानास्थानवास्तव्य प्रभूत सुश्रावक महामेलापकेन प्रारंभिते श्री हस्तिनापुर श्री मथुरा महातीर्थयात्रोत्सवे ।"
उपर्युक्त उद्धरण में नवहा (वर्तमान नवां) झुंझणु, नरभट (वर्तमान नरहड़) एवं खाटू नामक ग्राम-नगरों का उल्लेख विशेष रूप से ध्यातव्य है, जो अद्यावधि किसी रूप में वर्तमान है ।
इसी क्रम में श्री सिद्धसेन सूरि (अपभ्रंश कथाग्रंथ 'विलासवई कहा' वि० सं० ११२३ के रचयिता) की सर्व तीर्थमाला' की निम्न गाथा भी ध्यान देने योग्य है--
खंडिल्ल झिझुंयाणय नराण हरसउर खट्टउएसु । नायउर सुद्धदंतीसु संभरिदेसेसु वंदामि ।। ३५ ।।
इस गाथा में भी शेखावाटी के कपितय प्राचीन स्थानों का सम्मानपूर्ण संकेत है, जो आज भी किसी रूप में अवस्थित है।
कुछ समय पूर्व नरहड़ (प्राचीन नरभट) से दो अति भव्य एवं कलापूर्ण प्रतिमाएं प्राप्त हो चुकी हैं, जिनमें एक कायोत्सर्ग तप करते हुए पंचम तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ की है और दूसरी कायोत्सर्ग तप करते हुए बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की है। इन प्रतिमाओं के संबंध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा का वक्तव्य इस प्रकार है--'मतियां अप्रतिम सौन्दर्यमयी हैं । समय संभवतः गुप्तोत्तर काल का है । उसमें दो पंखुड़ियां छोटी और दो लंबी हैं । उष्णीष की बनावट का अपना अलग-अलग व्यक्तित्व है । मुख की सौम्यता, वृषस्कंध और शरीर के अंगप्रत्यंग की सौष्ठवपूर्ण प्राकृतिक घटनाएं सभी दर्शनीय हैं । ये दोनों मूर्तियां कला की दृष्टि से राजस्थान की अमूल्य निधि हैं ।
सन् १९५८ में अपनी ऐतिहासिक शोध यात्रा के अन्तर्गत लेखक ने वर्तमान ग्राम हरस (प्राचीन हर्षपुर) में भैरूजी के मंदिर में एक विशिष्ट प्रतिमा का अवलोकन किया था जो संभवतः कोई जैन प्रतिमा है । प्रतिमा का विवरण इस प्रकार है--
१. 'थमण' अगस्त १९७६ में प्रकाशित
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राजेन्द्र-ज्योति
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