________________
जाके उदय पण्डित जन पिता, आगम अर्थ बिगोड़े। शिवनारीना सुखअति सुन्दर, छिनमा तेह बिखोड़े हो ।। म०२ ।। लागे लोक प्रवाहमां मूरख, भाषे जीतुं मोह। बखतर बिन संग्राम निश्चे, गात्र होने जोह हो।।म०३ ।। जिहा रस लंपट जस किरति, छोड़े जगतनी पूणा । आशा पास तजे जो जोगी, जाके नहीं कहुं दूजा हो।।म४।। भोयणी नगर में मल्लि जिननी, यात्रा जुगते कीनी। सूरि राजेन्द्र सूत्र संभालो, संवर संगति लीनी हो।।म०५।।
__ मोह की शितर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाली गति बड़ी विचित्र है जो आत्मा को भवमुक्त होने में बाधा पहुंचाती है।
अंत में श्री राजेन्द्र सूरिजी कहते हैं कि भव्यो। भोयणी नगर में मल्लि जिनेश की भावपूर्ण यात्रा करते हुए सूत्रों को संभालो और संवर के साथ संगति करो।
साहित्य वाटिका की रम्य स्थली पर मोद प्रमोद में विचरण करने वाले कवि ने भक्ति रस का सुन्दर रचना द्वारा आत्म विभूति को जगाने का कितना सरल साधन दिखाया है।
अबूध आतम ज्ञान में रहना,
किसी कुं कुछ नहीं कहना। आतम ध्यान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी।
परम भाव लहे न घट अंतर, देखे देखे पक्ष दुरंगी।। और भी आगे चलकर कवि ने परमात्मा के साथ किस प्रकार प्रेम प्रकट किया है। प्रभु के साथ लाड़ लड़ाने की कितनी उत्सुकता भावुकता दिखाई है।
श्री शांतिजी पिऊ मारा, शांति सुख सिरदार हो। प्रेमे पाम्या प्रीतडी पिऊ मोरा,
प्रीतिनी रीति अपार हो ।। परमात्मा को अपना पतिदेव मानकर आप उनकी नायिका का स्थान ले रहे हैं। प्यारे सज्जनो! प्रभु भक्ति में कितना प्रेम उनकी आत्मा में उमड़ता रहता था। इन पंक्तियों से स्पष्ट मालम होता है कि उनका हृदय प्रभु को रिझाने में तल्लीन रहता था किसी प्रकार की शंका न रखते हुए ईश्वर को पिऊ के संबोधन से पुकारा है । आनन्दघनजी ने भी तो इसी प्रकार प्रभु स्तवना की है। पाठकगण उनके गीत का भी रसपान करें।
निशदिन जोऊं तारी वाटडी, घर आवो रे ढोला । निश०।। मुझ सरिखीतुझ लाख है,
मेरे तुंही ममोला।। निश० । आनंदघनजी 'ढोला' शब्द से ईश्वर को संबोधित करके उसको पतिदेव मानकर आप नायिका बन जाते हैं। यह प्रियतम को बुलाने की कितनी विह्वलता भरी रीति है।
गुरुदेव के काव्य ग्रंथों में यति, गति, ताल, स्वर, यमक, दमक अद्भुत ढंग से सच्चे हुए दिखायी देते हैं। भाण्डवपुर के तीर्थपति श्री महावीर प्रभु के चैत्यवंदन से यही बात प्रकट होती है।
वर्द्धमान जिनेसर, नमत सुरेसर अतिअलवेसर तीर्थपति, सुख संपत्ति दाता, जगत विख्याता, सर्वं विज्ञाता शुद्ध यति । जस नामथी रोगा, सोग वियोगा, कष्ट कयोगा लहि रांका। भाण्डवपुर राजे, सकल समाणे, वीर विराजे अति बंका ॥१॥
डायण ने शायण, प्रेत, परायण, भूत भयावण सहु मांजे, चुड़ेल चंडाला, अति विकराला, सकल सियाला नहीं गाजे। दुस्मण ने दाटे, कुष्ट हि कांटे, भय नहीं वाटे बलि रंका, भाण्डवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बंका ।।२।। सब काम समारे, सर्प निवारे, कुमति वारे, अरिहन्ता, जल-जलन-भगन्दर, मंत्र वशंकर, वारण शंकर समरन्ता। ए सूरि राजेन्द्रा, हरे भव फन्दा, नाम महन्दा जस डंका, भाण्डवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बंका ।। ३ ।।
इन छंदों को जो मनष्य श्रद्धापूर्वक प्रभात में नित्य स्मरण के रूप में पाठ करता है उसको स्वयं ज्ञात होगा कि वास्तव में इन छंदों के पढ़ने से आत्मा को कितनी शांति प्राप्त होती है। गुरुदेव ने प्रभुस्तव की संस्कृत में भी रचना की है-जो कितनी रोचक, मधुर . व भावपूर्ण है।
ओम् ह्रीं श्री मंत्रयुक्तं सकल सुखकर पार्श्वय क्षेपशोभं, कल्याणानां निवासं शिवपदसुखदं दुःखदार्भाग्यनाशाम् । सौम्यकारं जिनेन्द्रं मुनिहुदिरमणं नीलवर्ण प्रतीतम्,
आहोरे संघचैत्ये सबल हितकरं ग डिपार्श्व तमीडे ।। १ ।। भस्याङघ्रौ नित्यपूजां भजति सुखरो नागराजः सुयुक्त्या, सर्वेन्द्र भक्तियुक्ता नरपति निवहा यस्य शोभा स्वभावात्। तन्वन्ती स्नेहरक्तः शुभमतिविभवः स्तोतीयं धर्मराज, आहोरे संघचैत्ये सबलहितकरं गोडियावं तमीडे ॥२॥ वामेयं तीर्थनाथं सुमतिसुगतिदं ध्वस्तकर्मप्रपंचम्, योगीन्द्रोगगम्यं प्रभुवरमनीशं विश्ववंद्यं जिनेशम् योडदात्सत्सौख्यमाला गदित सुसमयं श्री राजेन्द्रसूरेः आहोरे संघ चैत्ये सबल हितकरं गोडिपावं तमीडे ।।३॥
अलंकारमयी रचनायें एवं कृतियां ही काव्य नहीं कही जाती, जिसके पढ़ने से चित्त वृत्ति स्थिर बन जाती है, अनुपम भावों की लहर उठती है, वह कृति उत्तर रचना अथवा काव्य होती है, उत्तम भक्ति भाव मुक्तिपथ प्रदर्शन और प्रभुभक्ति रसास्वादन कर होता है। तभी तो तुलसी, सूर, कबीर आदि कवियों की कृतियों से भारतवासी जन समूह में ईश्वर के प्रति आस्तिक भावना जागृत होती है । जैन महाकवियों की कृतियों में भी आध्यत्मिक, वैराग्य, त्याग भावनाओं से गुंथित काव्य ही अधिकतर पाये जाते हैं। यहां तक देखा गया है कि जब हमारे सामने उनके गीत आते हैं, हम उनको गाते हैं तो उनको सुननेवाले भाई भी बोल उठते हैं 'संसार असार है-घरद्वार, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब मिथ्या है।'
परमपूज्य गुरुदेव राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने नवपद ओली, देववंदन, पंचकल्याणक महावीर पूजा, जिनचौबीसी, अघटकुमार चौपाई, स्तवन, सज्झाय आदि विविध राग-रागिणियों में भावपूर्ण अच्छे ढंग से स्व करके अपना अमूल्य समय प्रभु के गुणगान में व्यतीत किया है। इन रचनाओं को भावुक जन साज-बाज के साथ गाते हैं और स्वर्गीय सुखानुभव करते हैं। आत्मा की तल्लीनता जब प्रभु के चरणाविद में होती हैं तब कही कोई भव-बंधन से मुक्त होने का पुण्य अर्जन करता है।
राजेन्द्र-ज्योति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org