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आठ गांवों के महाजनों ने रतलाम के महाजनों से बहुत अनुनय विनय की वे दण्ड भरने को तैयार हुए। मुनि श्री चौथमलजी और रतलाम नरेश ने भी बहुत प्रयत्न किये पर कोई सुपरिणाम सामने नहीं आया। अंत में संवत् १९६२ के गुरुदेव के खाचरोद चातुर्मास में गुरुदेव के प्रभाव से यह कठिन समस्या सुलझ गई। चीरोलादि ग्राम वालों को बिना किसी शर्त के जाति में सम्मिलित कर लिया गया।
दौड़ा पर आप ऐसी स्थिति में भी अडिग रहै और अपनी साधना पूर्ण की। साधना की सफलता का ही यह सुपरिणाम था कि आपको भविष्य की अनेक घटनाएं अपनी ध्यानावस्था में पहले ही ज्ञात हो जाती थी। इसी साधना के कारण आपको अनेक ऐसी सिद्धियां प्राप्त हुई थीं जिनके कारण आप संघ पर आये हुए संकटों को तत्काल निवारण कर देते थे।
कलमनामे की निर्मिति त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुनरुद्धार जितना सामाजिक महत्व रखता है उतना ही जागतिक महत्व रखता है 'श्री अभिधान राजेन्द्र" नामक विश्व कोश । इसी कोश का संपादन और लेखन करके आपने विश्वपुरुषों की श्रेणी में अपना स्थान बना लिया । डॉ० नेमीचंद जैन ने इस महान कार्य की तुलना श्री बाहुबली प्रतिमा से की है। श्री बाहुबली प्रतिमा की स्थापना जितना महान और श्रमसाध्य काम था उतना ही महान और श्रमसाध्य कार्य था श्री अभिधान राजेन्द्र की रचना । यह एक ऐसा संदर्भ ग्रंथ है जिसमें श्रमण संस्कृति का एक भी शब्द संदर्भ नहीं छूटा है । शब्द मूल के साथ इसमें शब्द का विकास भी दिया है एक एक शब्दों को उसके तत्कालीन प्रचलन तक उघाड़ा गया है। "अभिधान राजेन्द्र" की रचना से आप यावच्चंद्र दिवाकर अमर बन गये।
श्रीमद् की साहित्य साधना क्रांतिधर्मी है । उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत ज्यादा है। उनके पदों में लोकमंगल और समन्वय की भावना ने मूर्तरूप धारण किया है। उन्होंने कई पूजाएँ, कई स्रोत और कई पद लिखें हैं । छोटे बड़े कुल मिलाकर आपने इक्सठ ग्रंथों की रचना की अभिधान राजेन्द्र का ही लघुरूप "पाइम सद्बुही" अभी भी प्रकाशन की राह देख रहा है । इस प्रकार उनकी यह साहित्य निर्मिति अपने आप में बड़ा महत्व रखती है इसका मूल्यांकन होना चाहिये । आगम साहित्य की सुरक्षा के लिए आपने आहोर (राजस्थान) में और अन्य ग्रामों में भी ज्ञानभण्डारों की स्थापना करवाई।
विभिन्न प्रतिष्ठाओं और अंजनशलाका समारोहों का संयोजन धार्मिक महत्व तो रखता ही है पर उसका सामाजिक महत्व भी कुछ कम नहीं है । समारोहों में लोग दूर-दूर से आते हैं और सामुदायिक जीवन जीते हैं तथा स्वाध्याय प्रवचन द्वारा एक दूसरे के विचारों को समझते-समझाते हैं । इससे उदारता, अहिष्णुता, स्नेह समन्वय और धीरज जैसे चारित्रिक गुणों का विकास होता है और सामाजिक कार्यों के लिए एक नवभूमिका बनती है। इस प्रकार प्रतिष्ठा, अंजनशलाकादि समारोहों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी बड़ा महत्व है। ऐसे समारोहों के कारण संचित, संपदा का सदुपयोपग होता है और सामाजिक शत्रुताएँ भी समाप्त हो जाती हैं।
श्रीमद् ने कुल मिलाकर २७ छोटे बड़े प्रतिष्ठा, अंजनशलाकादि समारोह सम्पन्न करवाये। जालोर के सुवर्ण गिरि पर्वत पर जो जैन मंदिर थे उनका उपयोग शस्त्रागारों के रूप में होने लगा था और उन पर जोधपुर राज्य का अधिकार था। पूज्य गुरुदेव ने जोधपुर नरेश को समझा-बुझाकर और सत्याग्रह करके इन मंदिरों को अस्त्र शस्त्रों से मुक्त करवाया और उनका उद्धार किया। इसी प्रकार आपने कोरहा, भाण्डवाजी और तालनपुर तीर्थों का भी जीर्णोद्धार करवाया और मोहनखेड़ा नामक स्वतंत्र तीर्थ की स्थापना भी करवाई । इसके अलावा संवत् १९४४ में थराद के चातुर्मास के पश्चात् आपके उपदेशों से प्रभावित होकर पारख अंबावीदास मोतीचंद ने शत्रुजय और गिरनार का पैदल छहरी पालन करता हुवा विशाल संघ निकाला। यह संघ यात्रा इतिहास में अविस्मणीय थी। इस यात्रा में उस काल में एक लाख रुपये व्यय हुए थे।
प्रतिष्ठांजनशलाकाओं में आहोर के बावन जिनालय युक्त श्री गोडी पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा बड़ा महत्व रखती हैं। संवत् १९५५ के फालगन विदी ५ को इस मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा हुई। इसी अवसर पर ९५१ जिन बिंबों की प्राण प्रतिष्ठा की गई । मारवाड़ के १५० वर्षों के इतिहास में यह प्रतिष्ठोत्सव अपने ढंग का सर्वप्रथम था।
क्रान्तिकारी व्यक्ति को कदम-कदम पर खतरा उठाना पड़ता है उसे हर जगह शास्त्रार्थ के लिये तैयार रहना पड़ता है । श्रीमद् को अपने त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के मण्डन के लिए रतलाम में, अहमदाबाद में और सूरत में भी विपक्षियों के साथ शास्त्रार्थ करना पड़ा। हर शास्त्रार्थ में आप विजयी हुए। मूर्तिपूजा के मण्डन के लिए आपको स्थानकवासी विद्वानों के साथ जालोर, निंबाहेडा आदि स्थानों में शास्त्रार्थ करना पड़ा उसमें भी आप विजयी हुए । इस तरह कुछ स्थानों पर आपको दिगम्बरों से भी निपटना पड़ा। विपक्षियों ने आपको अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट देकर हैरान करने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की पर आप आगे बढ़ते ही गये । दैदीप्यमान सूर्य को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?
सामाजिक एकता के लिए भी आपने अथक प्रत्यन किया जगह-जगह के मतभेद मिटाकर बिछड़े भाइयों को वापस मिलाया। चीरोला और उसके आसपास के और गांवों का उदाहरण बड़ा महत्व पूर्ण है। ये सभी गांव ढाईसौ वर्षों से जाति बहिष्कृत थे। इन गांवों । के कुओं तक का पानी पीना भी निषिद्ध हो गया था। चीरोलादि
संवत् १९६३ का चातुर्मास श्रीमद ने बडनगर में किया इसी चातुर्मास में आपने "श्री महावीर पंच कल्याणक पूजा" और "कमलप्रभा शुद्ध रहस्य" की रचना की। चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात आपने मार्गशीर्ष मास में भंडपाचस की यात्रार्थ ससंघ प्रस्थान किया। उस समय आपकी अवस्था अस्सी वर्ष की थी। मार्ग में ही आप ज्वराक्रांत हो गये अतः राजगढ़ आना पड़ा । अपने अंत समय का आपको पहले ही ज्ञान हो गया था। पौष शुक्ला ३ को आपने श्री यतीन्द्रविजयी और श्री दीपविजयी को श्री अभिधान राजेन्द्रकोश के संपादन और मुद्रण का आदेश दिया। पौष शुक्ला ६ की संध्या को "अर्हन नम:' का जाप करते करते आप समाधियोग में हमेशा के लिए लीन हो गये। पौष शक्ला ७ को आपके पार्थिव शरीर का मोहनखेडा तीर्थ पर अग्निसंस्कार किया गया। इस प्रकार यद्यपि आप देह रूप में तो अब हमारे बीच में तो नहीं हैं आप श्री अधिधान राजेन्द्र के रूप में हमेशा के लिए हमारे साथ हैं।
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..राजेन्द्र-ज्योति
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