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आप हैं बीसवीं शताब्दी के युग प्रधान जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.। जिनके नाम श्रवण से ही संघ समुदाय भक्ति से प्रेरित हो गुनगुनाने लगता है । जानते हैं इसका क्या कारण है ? इसका मूल कारण है आपके जन कल्याणार्थ किए गए सफल कार्य।
आप में संकल्प की अद्वितीय अविचलता है जो बात वर्तमान व भावी पीढ़ी के कल्याणार्थ दृष्टिगोचर हुई उसको कार्यान्वित करने में तन मन से अविलम्ब-अविश्राम लग गए। भले ही उसमें कितनी ही बाधाएं आए आप समय के पक्के पाबन्द हैं ठीक समय में ठीक कार्य करने का प्रबल पक्ष भी इनके प्रबल आकर्षण का हेतु है ।
सूरीश्वरजी महाराज विश्व पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे थे। आपने भारतीय संस्कृति व चरित्र को सुदृढ़ बनाने पर पुरूबल दिया । अपने साथी यतियों व श्रावकों को चारित्रिक पवित्रता उज्ज्वलता को व्यवहार में लाने के लिए व आत्मशुद्धि हेतु प्रोत्साहित किया। अंग्रेजों द्वारा भारतीय संस्कृति को निष्प्राण व खोखला बनाने के षड्यंत्र का प्रबल विरोध किया। आपने सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि भारतीय संस्कृति सशक्त है, निष्कलंक है, शाश्वत है. अपने आप में सबल व समर्थ है, प्रेरणाप्रद है, सार्थक है यह सिर्फ भारतीय जन जीवन के लिए ही नहीं अपितु विश्व में फैले हुए अज्ञान रूप अंधकार की अटवी को भी प्रकाश मान करने की सामर्थ्य रखती है। आपने भारतीय लोक-जीवन में पुनरुत्थान की ओर विशेष ध्यान दिया है। आपकी सबसे महत्वपूर्ण "तीन थुई क्रांति है" जो धार्मिक होते हुए भी उक्त व्यापक क्रान्ति का ही एक अंग है। सामाजिक उत्थान करने तथा धार्मिक संस्कार डालने का प्रबल प्रयास आपका प्रमुख लक्ष्य था, यही वह कारण है कि लोग आपके दर्शनमात्र से धन्य हो जाते हैं । अतिरिक्त जैन समुदाय ही नहीं हर जाति व वर्ण के लोग आपके श्रद्धालु भक्त हैं।
एक समय आप विहार कर मोदरा पधारे और समीपस्थ चामुण्डवन में ध्यान हेतु पधारने लगे। श्रावकगण विह्वल हो उठे, श्रावकों ने आपको वन में जाने से रोकने की चेष्टा की तो आचार्य वर्य ने पूछ लिया "क्यों क्या बात है ? श्रावकजी? तो एक सज्जन बोले" प्रभु ! वहां एक हिंसक सिंह वास करता है वहां तपस्या व साधना करने जाने पर हमें आपके प्राणों का भय है, कृपा कर अन्य
स्थान पर योग साधना करावें।" इस पर पूज्यवर ने मंदहास्य के साथ अप्रमत्त हो प्रत्युत्तर दिया “श्रावकजी घबराने की कोई बात नहीं मेरा सिंह से कोई वैरभाव नहीं है जिससे कि वह मेरे साथ शत्रुता का व्यवहार करे" आप निश्चिन्त रहिये धर्म प्रवृत्त रहिये" जाइये धर्मलाभ।
श्रावक सब बेचैन थे, गोपनीय रूप से कई क्षत्रियों को उन्होंने आचार्य श्री की रक्षार्थ पर्वत पर नियुक्त कर दिया जब पहाड़ पर से भयंकर गर्जन सुनाई पड़ी, रक्षार्थ क्षत्रिय सावधान थे। पर यह क्या सिंह कार्योत्सर्ग में लीन गुरुवर्य की तीन परिक्रमा कर शांति से सम्मुख आ वंदन मुद्रा में बैठ गया।
सबको आश्चर्यजनक हर्ष हुआ। एक क्षत्रिय ने यह सुखद एवं चमत्कारी समाचार संघ के श्रावकों को विदित कराया । गुरुदेव श्री की इस घटना का समाचार हवा में विस्फोट कर गया, गांव गांव से लोग प्रातःकाल दर्शनार्थ आने लगे यह समाचार विचित्र ढंग से आसपास के गांवों में फैल गया था।
__ आपने संघ को सुवर्णगिरितीर्थ के जिनालयों का जीर्णोद्धार कराने की प्रेरणा दी। वहां मंदिरों में राजकीय अस्त्र-शस्त्र पड़े थे, वहां के शासकों से मांग करके उन्हें कटवाया गया। श्रावक समाज ने गुरुदेव श्री के आदेशानुसार कार्य किये। संवत् १९३३ में स्वर्ण गिरी तीर्थ के मंदिरों की प्रतिष्ठा बड़े वैभव से सम्पन्न हई। यह चमत्कार गुरुदेव श्री के त्याग एवं तपस्या की अग्नि में तपे हुए चारित्र की उज्ज्वल गरिमा का ज्वलंत प्रमाण था इस घटना के बाद तो पूज्यपाद श्री साक्षात् अलौकिक शक्ति पुंज के रूप में पूजे जाने लगे।
जालोर के मंदिरों की प्रतिष्ठा के बाद इसी जिले के अनेक ग्रामों में विहार कर जनमन के मन में धर्म भावना जागृत करने का सूपावन कार्य सूरीश्वरजी महाराज के पुण्य प्रभाव से हआ। जालोर क्षेत्र के लोग पूज्य गुरुदेवश्री के उऋण नहीं हो सकते।
आज प्रभुश्री की १५० वीं जन्म वर्षावली पर जालोरवासी व जालोर जिला व परगना के लक्षान्तर नर-नारी इस पूज्यनीय चरित्रात्मा को आत्मिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
प्रभुश्री चरण कमलों में शत शत बार बंदन ।
सब कलाओं में श्रेष्ठ धर्म-कला है, सब कथाओं में श्रेष्ठ धर्म-कथा है, सब बलों में श्रेष्ठ धर्म-बल है और सब सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है ।
-राजेन्द्र सूरी
राजेन्द्र-ज्योति
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