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तपोधन श्रीमद् राजेन्द्र सूरि
कनकमल लुणावत
ललाट में एक अनुपम ज्योति है,
प्रसन्नता भानन में विराजति है । मनोलता शोभित अंग-अंग में,
पवित्रता है पद पद्म चुभती ।। भारत भूमि पूज्य भूमि के रूप में सदा से उर्वरा रही है। यही कारण है कि यहां का त्याग, तपस्या, अहिंसा, ज्ञान, भक्ति एवं दया आदि जीवन का सही मार्ग प्रशस्त करने मे अपूर्व सफल रहा है । इसी वीर प्रसविनी भूमि के भरतपुर नगर में वि.सं. १८८३ पोष शुक्ल ७ गुरुवार के दिन मंगलमय मुर्हत में श्रेष्ठी श्री ऋषभदासजी पारख के वंश में माता केशरी की कोख से तेजस्वी मुख गौरवर्ण, विशालभाल, एवं करुणा की मूर्ति बालक रत्नराज ने जन्म लिया । बालक रत्नराज की धर्म के प्रति पूर्ण रुचि एवं अगाध श्रद्धा थी । साधु-संतों के प्रवचनों का प्रतिदिन श्रवण करते थे । पूर्व पुण्योदय से उनके हृदय में वैराग्य भावना जागी अतः इस मार्ग को अपनाने के लिए अपने अग्रज की स्वीकृति प्राप्त कर, वैशाख शुक्ला ५, वि. संवत् १९०४ में यति श्री हेमविजयजी म.सा. के पास यति दीक्षा प्राप्त की और यति रत्नविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हए । ५ वर्षों तक अध्ययन करने के पश्चात् वि.सं. १९०९ वैशाख शुक्ला तृतीया को उदयपुर में बड़ी दीक्षा प्राप्त की । यति रत्नविजयजी ने अपने आत्मबल से खूव ज्ञानार्जन किया तब पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी म.ने श्री पूज्य पद के योग्य समझ वि.सं.१९२४ में वैशाख शुक्ला ५ बुधवार को आहोर में श्री पूज्य पद देकर श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी म. के नाम से प्रतिष्ठित किया। अब पूज्य गुरुदेव ने अपनी त्याग, तपस्या और स्वाध्याय के बल पर जिन धर्म की वास्तविकता प्रदर्शक त्रिस्तुति के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । यद्यपि आपको इस कार्य में अनेक कष्ट सहन करने पड़े परन्तु शनै:-शनैः आपका प्रभाव बढ़ता गया।
साहित्य सेवा
जिस देश, जाति समाज में साहित्य की कमी रहती है वहां हर बात की कमी रहती है, इसलिए समस्त क्षेत्र में साहित्य का विशेष महत्व है । पूज्य गुरुदेव के अनुपम साहित्य ने समाज के गौरव को चरमोत्कर्ष कर पहुंचा दिया है । आपने अपने जीवनकाल में ५८ से भी अधिक ग्रन्थों का निर्माण किया। इन ग्रन्थों ने समाज को नवनिर्माण का मार्गदर्शन दिया । आपके द्वारा रचित शिरोमणि, अनमोल ग्रन्थराज श्री अमिधान राजेन्द्र कोष अपने आप में शीर्ष ग्रन्थ है जो विश्वभर में विख्यात है। यह ग्रन्थराज ७ विशाल काय भागों में विभक्त है, इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं पाली भाषा की बाहुल्यता है, गुरुदेव श्री के ग्रन्थों में गति, ताल, स्वर चमक-दमक अद्भुत ढंग से सजे हुए हैं । गुरुदेव ने नवपद ओली, देववंदन, पंच कल्याणक, महावीर पूजा, जिन चौबीसी, स्तवन, सझाज्य आदि राग, रागिणियों में भावपूर्ण ढंग से साहित्यों की रचना करके अपना अमूल्य जीवन प्रभु के गुण गान में व्यतीत किया । अपूर्व साहस और भविष्यदृष्टा
पूज्य गुरुदेव श्री का जीवन तेजस्वी स्वरूप और निर्भीकता से लहराता है, आपमें ब्रहाचर्य का तेज और तपस्या की शक्ति थी । मर्यादा पालन में चट्टान से अडिग चाहे कैसी भी विपदा हो, दुःसह कष्ट हो गुरुदेव मर्यादा से कभी लेशमात्र भी नहीं डिगे। पुज्य गुरुदेव ने अपने अदम्य साहस और कुशाग्र बुद्धि से आई विपदाओं का संहरण करते हुए अपने पथ पर अग्रसर होते रहे। गुरुदेव भूत, भविष्य और वर्तमान की बातों के भी ज्ञाता थे। त्याग और तपस्या
त्याग जिन शासन का महानतम अंग है। त्याग ही अपने जीवन की लक्ष्य सम्प्राप्ति का एकमात्र साधन है। पूज्य गुरुदेव अपने
वी. नि. सं. २५०३
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