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के दिन जैन जगत का चमकता चिराग काल की आंधी से बझ गया। समाज निराधार हो गया । पूज्य गुरुदेव का अंतिम संस्कार श्री मोहनखेडा तीर्थ में किया गया । इस स्थान का मालवा को गौरव है, इसी याद में प्रतिवर्ष पौष शुक्ला ७ को भव्य मेला लगता है
आप में सुदीर्घकाल तक चिन्तनशील रहे, राग त्याग के भगीरथ कार्य में स्वयं को त्रिकरण त्रियोग में लगाते रहे । इसी त्याग कृति ने उन्हें निर्भीक बना दिया। उनका जीवन बीसवीं सदी की अविस्मरणीय त्याग की सुगन्ध से ओतप्रोत रहा है । जिन मुद्रा में कई घंटों तक स्थिर एवं अडिग रूप से श्री पंच परमेष्ठी का ध्यान किया। मांगीतुंगी पर्वतीय क्षेत्र उनकी साधना का मुख्य केन्द्र था । पूज्य गुरुदेव ने ७२ दिन की तपस्या के साथ श्री नमस्कार महामंत्र के सवा करोड़ जाप किये । उत्कृष्ट त्याग की भूमिका तथा पूर्ववर्ती, पश्चात्वर्ती एवं पार्श्ववर्ती जीवन उनके सहज त्याग का परिचायक है। चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी गुरुदेव के जीवन का त्याग पथ इतना प्रबल, उज्ज्वल एवं अविरल है कि जिसमें वे आजीवन जिन शासन की प्रभावना के अधिष्ठान रहे । उनका शुद्धतम लक्ष्य था त्याग मार्ग की प्रतिष्ठा की जाए अतएव उनकी उपदेशधारा तदनुरूप ही प्रवाहित हुई ।
धन्य तुम गुरुवंश, मात पिता तुम धन्य,
धन्य देश पुर जाति को, भरतपुरी वर धन्य।
पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन प्रारंभिक काल से अंतिम काल तक त्याग का पक्ष पूरक रहा । त्याग में ही उनकी अभिरुचि एवं तद्वती बाह्यन्तर परिणाम भी रहे। आपने अपने जीवन काल में अनेकानेक जिन मंदिरों का नव निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाया। साथ ही गांव-गांव एवं शहर-शहर में बिहार करते हुए अपनी मधुर एवं ओजस्वी वाणी से सच्चे ज्ञान का प्रसार करते हुए लोगों को उपदेश दिया। विहार करके आप राजगढ़ पधारे वहां से पश्चिम में दो किलोमीटर दूर खेड़ा नाम के स्थान पर गये वहां की सुरम्य वनस्थली नदी के प्रवाहित जल का सुन्दर किनारा और साधना की दृष्टि से उत्कृष्ट प्रेरक जानकर आपने श्री लुणाजी संघवी को उपदेश देकर श्री आदीश्वर भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाकर के श्री मोहनखेड़ा नामकरण किया। पूज्य गुरुदेव अपने अंतिम समय में राजगढ़ रहे तथा राजगढ़ में ही वि.सं.१९६३ में पौष शुक्ला ७
विनय हे राजेन्द्रसुरीश तुम सा बन जाऊं
मेरी यही विनय है। मेरा हो यह आत्म सुदर्शन
देखू अपने में अपनापन समकित दृष्टि बने देखू निज से सत्व स्वयं चिन्तनम हैहे राजेन्द्र सुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है ।
षष्ट द्रव्यों की सत्ता जानु ।
सबकी परणतियां पहचान होवे समकित ज्ञान जागरित जो जिन में तन्मय है । हे राजेन्द्र सुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है
सच्ची श्रद्धा ज्ञान जगाकर ।
स्वात्म रमणता को अपनाकर सद आचरण वन्दन करूं जो परम शांति समुदय है । हे राजेन्द्रसुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है
अहिंसा प्राणिमात्र का माता की भांति पालन-पोषण करती है, शरीररूपी भूमि में सुधा-सरिता बहाती है, दुःख-दावानल को बुझाने के निमित्त मेघ के समान है, और भव-भ्रमण-रूपी महारोग के नाश करने में रामबाण औषधि है।
-राजेन्द्र सूरि
राजेन्द्र-ज्योति
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