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"सारिपुत्र ! बोधि प्राप्ति के पूर्व में दाढ़ी, मूंछों का लुंचन करता था, खड़ा रहकर तपस्या करता था, उकडू बैठकर तपस्या करता था, नंगा रहता था, हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिए हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था।
इस संदर्भ के आधार पर डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी एवं पं. सूखलालजी ने इस धारणा को व्यक्त किया कि बुद्ध कुछ समय के लिए पार्श्वनाथ की परम्परा में रहे थे। ___ डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस मत से अपनी सहमति प्रकट की है। बुद्ध द्वारा जैन धर्म की तप विधि के अभ्यास की पुष्टि श्रीमती राइस डेविड्स ने भी की है।
पार्श्व के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की स्थापना का पाश्चात्य विद्वानों में सर्वप्रथम श्रेय डा. जेकोबी को है।"
डा. चार्ल शाटियर ने लिखा है कि जैन धर्म निश्चित रूप से इतिहास के एक यथार्थ पात्र रहे हैं। उनके शब्दों में
"We ought also to remember both the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parshva having almost certainly, existed as a real person & that consequently, the main points of the original doctrine may have been condified long before Mahavira."
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने अहिंसा धर्म की परम्परा में पार्श्वनाथ की देन को इन शब्दों में व्यक्त किया है--
"श्रीकृष्ण के समय से आगे बढ़े, तब भी, बुद्ध देव से कोई ढाई सौ वर्ष पूर्व हम जैन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ को अहिंसा का विमल संदेश सुनाते पाते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि पार्श्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किन्तु पार्श्व मुनि ने उसे सत्य, अस्तेय और २७. डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी भगवान बुद्ध पृ. ६८-६९ २८. डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म
पृ. २८/३१ २९. पं सुखलालजी-चार तीर्थकर पृ. १४०/१४१ ३०. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दू सभ्यता-अनु. डा. वासुदेव
शरण अग्रवाल राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ. २३९ ३१. Mrs. Rhys Devis-Gautam the man. PP 22-25. ३२. Dr. Jacobi-Sacred Books of the East Vol. XIV
Introduction to Jain Sutras Vol. II P. 21. ३३. डॉ. चार्ल शार्पटियर-The Uttradhyan Sutra Intro
duction P. 21.
अपरिग्रह के साथ बांधकर सर्व साधारण की व्यावहारिक कोटि में डाल दिया ।
पार्श्वनाथ ने चार मुख्य उपदेश दिये इस कारण पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं। पार्श्वनाथ ने सामयिक चारित्र धर्म की शिक्षा चातुर्याम--चार त्यागों के रूप में दी
१. सर्व-प्राणातिपात-विरमण -हिंसा का त्याग २. सर्व-मृषावाद-विरमण --असत्य का त्याग ३. सर्व-अदत्तादान-विरमण --चौर्य त्याग ४. सर्व-बहिद्धादान-विरमण –परिग्रह त्याग
पार्श्वनाथ के समय में धर्म साधक अत्यंत ऋजु, प्रज्ञ एवं विज्ञ थे तथा वे स्त्री को भी परिग्रह के अंतर्गत समझकर बहिद्धादान में उसका अन्तर्भाव करते थे। चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर
महावीर ने अपने समय की परिस्थितियों के संदर्भ में ब्रह्मचर्य व्रत का अलग से उल्लेख किया । उन्होंने छेदोपस्थानीय चारित्र अर्थात् विभागयुक्त चारित्र की व्यवस्था की । पूज्यपाद (वि. सं. ५-६ शताब्दी) ने महावीर के विभाग-युक्त चारित का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
"भगवान महावीर ने चारित्न धर्म के तेरह विभाग किए। पाँच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । ये विभाग उनके पूर्व नहीं थे।
तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषा निमित्तोदयाः पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचनतानि व्यपिः चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परै राचारं परमेष्ठिनो जिनमते वीरान् नमामो वयम् ।।35
महावीर का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उन्होंने उग्र तपस्या करके संघर्षों को सहज रूप से झेलने का एक मानदंड स्थापित किया तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया। उनका जीवन आध्यात्मिक चिन्तन, मनन एवं संयमी जीवन का साक्षात्कार है, निष्कर्मदर्शी के निष्कर्म आत्मा को देखने का दर्पण है, आत्मा को आत्म-साधना से पहचानने का मापदण्ड है, तप द्वारा कर्मों को क्षय करके आत्मस्वभाव में रमण करने की प्रक्रिया है तथा इससे भी बड़ी बात यह है कि किसी के आगे झुक कर नहीं प्रत्युत अपनी ही शक्ति एवं साधना के बल पर जीवात्मा के परमात्मा बनने की वैज्ञानिक प्रयोगशाला है। ३४. डा. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२६ ३५. पूज्यपाद चारित्र भक्ति ७
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