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गुणस्थान-आत्मोत्थान के सोपान
मुनि महेन्द्रकुमारजी 'कमल'
आरोह की ओर
आत्मा ही परमात्मा बनती है । परमात्मा की विशिष्ट रूप में कोई पृथक् सत्ता नहीं है । आत्मा निखर कर ही जब अपने स्वरूप में पहुँच जाती है तो वह परमात्मा कहलाती है । तब फिर इस परमात्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता । सदा के लिए वह संसार से मुक्त हो जाता है । जितनी भी आत्माएं सिद्धशिला पर मिलती है, वे ज्योति में ज्योति के समान एकाकार हैं ।
इसे ही आत्मा-विकास का सर्वोच्च सोपान माना गया है । जिस तक पहुँचने के लिए कई सोपान पार करने पड़ते हैं । आत्म-परिष्कार को उत्कृष्टता के साथ-साथ गतिक्रम आरोह की ओर बढ़ता है । किस समय आत्म-शुद्धि का क्या स्तर है, उसकी कसौटी गुणस्थान के रूप में निर्धारित है । संक्षेपत: आत्मोत्थान के मान-स्थान बताने वाले गुणस्थान होते हैं। समग्र कर्म-मुक्ति
मूल स्वरूप में तो संसारी एवं सिद्ध आत्माओं में कोई अन्तर नहीं है । जो अन्तर है वह दोनों के वर्तमान स्वरूप में है । बह कर्मों की श्लिष्टता या संपृक्ति का है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त का निचोड़ यह है कि आत्मा का अजीव तत्व के साथ संयोग तथा उसका संसार में परिभ्रमण कर्म-संलग्नता के कारण होता है। शरीर के साथ सम्बन्ध होने के बाद आत्मा की जिस रूप में शुभ अथवा अशुभ परिणति होती है, तदनुसार उसके शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बंध होता है । इस तरह बंधे हुए कर्म भोगने पड़ते हैं तथा निरन्तर सक्रियता के कारण नये कर्म भी बंधते रहते हैं । इस कर्म बंध को जहाँ एक ओर संयती जीवन के माध्यम से संवरित किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर निर्जरा के रूप में उनका उपशम एवं क्षय भी सम्भव है।
जब कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर लिया जाता है तब आत्मा को मोक्ष को उपलब्धि होती है । इस मोक्ष को हम कर्म-मुक्ति या आत्मविकास का, आत्मोत्थान का सर्वोच्च सोपान कहते हैं, जो आत्मा को परमात्मा बनाता है ।। ___इस दृष्टि से वर्तमान आत्म-स्थिति सांसारिकता है । अन्य शब्दों में--कर्म संलीनता, उसकी इस हेतु विकास दिशा, यही है कि वह कर्म-मुक्ति की ओर पग उठाए और समग्र कर्ममुक्ति पर्यन्त सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की आराधना में निमग्न रहे। दो छोर-बंध और मोक्ष
जब तक कर्म बंध का क्रम चालू रहेगा तब तक आत्मा संसारी-आत्मा रहेगी एवं समग्र कर्म-मुक्ति के बाद वह सिद्ध वन जायगी । अतः आत्म विकास के रूप में जो पुरुषार्थ करना हैजो पराक्रम दिखाना है, उसका अर्थ कर्म-मुक्ति की दिशा में ही कर्मठ और पराक्रमी बनना है । इस विकास पथ का एक छोर कर्म बंध का है और दूसरा अन्तिम छोर है कर्म-मुक्ति।
आओ ! आत्मा के मूल स्वरूप एवं कर्म-बंध तथा कर्म-मुक्ति के दोनों छोरों को भली-भाँति समझने के लिए एक दृष्टान्त का आश्रय लें । एक नया दर्पण है-बहुत स्वच्छ है । इसमें देखें तो आकृति एकदम हुबहू दिखाई देगी। फिर वह उपयोग में आने लगता है, उस पर धूल-मिट्टी या चिकट जमने लगती है । कभी बंद मकान में पड़ा रहता है और धूल-मिट्टी की इतनी पर्ते जम जाती हैं कि उसमें प्रतिच्छाया तक दिखना बंद हो जाती है । इस तरह वह दर्पण अपने अर्थ में दर्पण ही नहीं रह जाता । उसी प्रकार आत्मा अनादि काल से इस संसार में भ्रमण कर रही है। इसके स्वरूप पर उस दर्पण की तरह कर्मों का मेल लगता जा रहा
वी. नि. सं. २५०३
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