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और सम्यकरूप के अधिक से अधिक समीप पहुँचा देता है । सत्य के अनेक रूप हैं जैसे जो दृष्य है, वह सत्य है, पर वह भी सत्य है जो दृष्य नहीं है । जो स्थित है वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है। जो परिवर्तनशील है वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है। तत्वार्थ सूत्र में यह ठीक ही कहा है कि स्थिति के बिना परिवर्तन होता ही नहीं। एक रूप अनेक रूपता का अंश रह कर ही सत्य है । उससे निरपेक्ष होकर वह सत्य नहीं है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से आत्मा भी सत्य है और अनात्मा भी सत्य है । उपयोगिता वादी दृष्टिकोण से आत्मा ही सत्य है और सब मिथ्या है । आत्मा की परमात्मा बनने की जो साधना है वह हमारा उपयोगितावाद है। अष्ट महस्री में आचार्य विद्यानन्द ने पहला द्वैतवादी दृष्टिकोण और दूसरा अद्वैतवादी दृष्टिकोण माना है। भगवान महावीर खण्ड सत्य को अनन्त दृष्टिकोण में से देखने का सन्देश देते थे। अनेकान्त दृष्टि में अद्वैत भी उनके लिये उतना ही अग्राह्य था । जितना कि द्वैत । उसके विपरीत एकान्त दृष्टि से द्वैत भी उनके लिये उतना ही अग्राह्य था जितना कि अद्वैत । स्यादवाद मंजरी में अद्वैत और द्वैत दोनों को एक सत्य के दो रूप माना है । ___ अस्तु अनेकान्त की मर्यादा में सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद का सिद्धांत सत्य नहीं है। जो भिन्न है वह किसी दृष्टि से अभिन्न होकर ही भिन्न है और जो अभिन्न है वह किसी दृष्टि से भिन्न होकर ही अभिन्न है। इस प्रकार भेदाभेद के सह अस्तित्व का सिद्धांत आम जनता अपना ले तो वर्तमान समाज के विचारों की गुत्थियाँ आसानी से सुलझ सकती हैं। वस्तुतः अभेद में भेद का विरोध न होना ही समन्वय है। आगमवाणी के अनुसार यह कहा जा सकता है कि जीव घात और मनोमालिन्य जैसे हिंसा है वैसे एकान्त दृष्टि या मिथ्या आग्रह भी हिंसा है। दृष्टि को ऋजु और सापेक्ष किये बिना वर्तमान समाज की वस्तुस्थिति का यथार्थ ग्रहण और निरूपण नहीं किया जा सकता । भगवान महावीर ने एकान्त आग्रह को सम्यग् दर्शन में बाधक बतलाया ।जैन परम्परा में अनेकांतवाद के प्रति आस्था है, फिर भी किसी बिषय को लेकर एकांगी आग्रह क्यों रहा, यह वस्तुतः बड़ा प्रश्न है ? किसी स्थिति में कोई कार्य किसने किया, किसने बनाया,इन बातों का पूरा ज्ञान नहीं होता, तब वर्तमान समाज में आग्रह अधिक बढ़ता है। वर्तमान समाज में एकांगी आग्रह वहीं पनपता है । जहाँ स्थिति का सही अंकन नहीं होता और जहाँ एकांगी आग्रह होता है वहाँ भेद, अभेद में से नहीं निकलता है वह भेद में से ही उपजता है । मूल एक होने पर भी पोषण लेने और पचाने में अनेकता हो सकती है । वह अनेकता एकता में से निकलती है इसलिये दुःखदायी नहीं होती। आज जो अनेकता है वह एकता में से नहीं निकल रही है इसलिये वह दुःखदायी हो रही है ।
सत्य अखंड और अविभक्त है । जो सत् है वह अनंत धर्मात्मक है। उसे अनंत दृष्टिकोणों से देखने पर ही उसकी सत्ता का यथार्थ ज्ञान होता है । इसलिये भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की। दूसरे के सही दृष्टिकोणों का भी आदर करो । अनेकान्त दर्शन वस्तु विचार के क्षेत्र में दृष्टि की एकांगिता और संकुचितता स होने वाले मतभेदों को उखाड़कर मानसिक समता की सृष्टि करता है । इस अनेकान्त महोदधि की शांति और गंभीरता को देखो। मानस अहिंसा के लिये जहाँ विचार शुद्धि करने वाले अनेकांत दर्शन की उपयोगिता है वहाँ वचन की निर्दोष पद्धति भी उपादेय है क्योकि अनेकान्त को व्यक्त करने के लिये ऐसा ही है। इस प्रकार की अवधारिणी भाषा माध्यम नहीं बन सकती। इसलिये उस परम अनेकान्त तत्व का प्रतिपादन करने के लिये स्याद्वाद रूप वचन-पद्धति का उपदेश दिया गया है । इससे प्रत्येक वाक्य अपने में सापेक्ष रह कर स्ववाच्य को प्रधानता देता हुआ भी अन्य अंशों का लोप नहीं करता । वह उनका गौण अस्तित्व स्वीकार करता है। ____ अहिंसादि की दिव्य ज्योति विचार के क्षेत्र में अनेकान्त के रूप में प्रगट होती है तो वचन व्यवहार के क्षेत्र में स्याद्वाद के रूप में जगमगाती है। कहने का मतलब है विचार में अनेकान्त वाणी में स्याद्वाद तत्व की निरूपण पद्धति में इनका प्रमुख स्थान है। जैनेन्द्र व्याकरण में कहा है "सिद्धिरनेकांतात्"अर्थात अनेकांत के द्वारा शब्दों की सिद्धि होती है। कालु कौमुदी में भी मुनि श्री चौथमलजी ने भी ऐसा ही कहा है । पदार्थ का विराट स्वरूप समग्रभाव से वचनों के अगोचर है। वह सामान्य रूप से अखण्ड मौलिक दृष्टि से ज्ञान का विषय होकर भी शब्द की दौड़ के बाहर है । केवल ज्ञान में जो वस्तु का स्वरूप झलकता है उसका अनंतवां भाग ही शब्द के द्वारा प्रज्ञापनीय होता है तथा जितना शब्द के द्वारा कहा जाता है उसका भी कुछ भाग श्रुतनिबद्ध होता है जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया वस्तु का अंश ही सत्य है, अन्य के द्वारा जाना गया मिथ्या है। वस्तुस्वरूप से पराड्.मुख होने के कारण उनकी कथनी मिथ्या और विसंवादिनी होती है। जैन दर्शन का आचार अहिंसामूलक, विचार अनेकान्त दृष्टिमूलक और भाषा स्वादद्वादमूलक है ।
लोक भाषा और व्यवहार में अनेकान्त सिद्धांत अर्थात सापेक्ष कथन यह प्रकार जितना मौलिक और सत्य है उतना ही दर्शन जगत में भी। उपरोक्त आवास संबंधी ज्ञान में एकान्तवादिता सत्य से जितनी दूर ले जाती है उतनी तत्वज्ञान के सम्बन्ध में भी। अतः दर्शन और लोक व्यवहार दोनों ही क्षेत्रों में अनेकांत स्यावाद का प्रयोग न केवल उचित ही है किंतु अनिवार्य भी है ।
इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त सिद्धांत से विचारों या दृष्टिकोणों में कामचलाऊ समन्वय या ढीला ढाला समझौता नहीं होता किन्त वस्तु स्वरूप के आधार से यथार्थ तत्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है । वह वर्तमान समाज की समस्याओं का समाधान सहज ही कर देता है । वह कभी भी वस्तु की सीमा
(शेष पृष्ठ ३३ पर)
भगवान ने सत्य को अनेक दृष्टि से देखा और उसका प्रतिपादन स्यावाद की भाषा में किया । इसका हेतु भी समता की प्रतिष्ठा है । एकांत दृष्टि से देखा गया वस्तुत: सत्य नहीं होता। एकान्त की भाषा में कथित सत्य भी वास्तविक सत्य नहीं होता।
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