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________________ को जानने की उदारता । इसलिये भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टिकोण अपनाने पर बल देकर देश को साम्प्रदायिकता से बचा लिया। यह महावीर शासन की उल्लेखनीय सफलता कही जा सकती है। अनेकान्त ने ऋजता और अनाग्रह रूप साधना का पथ प्रस्तुत किया। महावीर ने कहा सत्य, उसे उपलब्ध होता है जो ऋजु है । तत्व-दृष्टाओं ने किसी भी समस्या को सुलझाने में एकांतिक आग्रह को स्थान नहीं दिया । संघर्ष, विध्वंस या विप्लव के द्वारा समस्याओं को सुलझाने का जो उपक्रम है वह वास्तविक सुलझाव नहीं है । वह तो उलझाव है क्योंकि उससे क्षणवर्ती सुलझन दीखती है। समन्वय, सामंजस्य व समझौता ही समस्याएं सुलझाने के प्रमुख आधार है जिसे हम जैन दार्शनिकों की भाषा में स्थाबाद या अनेकान्त दृष्टि कह सकते हैं । एकान्तवाद मिथ्या है अनेकान्त यथार्थ सत्य निर्णय के लिए ज्ञान और वाणी दोनों में अनेकान्त की अपेक्षा है। एकान्त दोनों में बाधक है। चूंकि ज्ञेय स्वयं अनेकान्त है, एकान्त ज्ञान और वाणी उसके निर्णय में साधक नहीं बनते । भगवान महावीर ने आग्रह और अभिनिवेष के तात्कालिक रोग को दूर करने के लिये अनेकान्त का आविष्कार किया। जब ज्ञेय पदार्थ का स्वभाव भी अनेकान्तात्मक है उस स्थिति में अनेकान्त के सिवाय यथार्थ दर्शन का कोई भी मार्ग नहीं रह सकता । अनेकान्त का क्षेत्र व्यापक है वह वर्तमान समाज-समस्या का राजमार्ग है । एकांत से आग्रह बढ़ता है। आग्रह से असहिष्णुता बढ़ती है जिसका परिणाम समाधान कारक नहीं हो सकता । अनेकांत एक दृष्टि है, स्याद्वाद उसकी प्रतिपादन शैली है। भगवान महावीर ने कहा-अस्याद्वाद पद्धति से नहीं बोलना चाहिये । विभाज्यवाद की पद्धति से बोलना चाहिए। स्याद्वाद के माने हैं - किसी विशेष अपेक्षा से कथन । जहां अपेक्षा नहीं रहती वहां एकांत होता है, आग्रह बढ़ता है । वस्तुतः आग्रह दृष्टि से यथार्थ निर्णय नहीं रुकता । अनेकान्त-स्याद्वाद और एकान्तवाद में "भी" और "ही" का बहुत बड़ा विरोध है । आत्मा नित्य भी है, यह स्याद्वादी का निरूपण है "आत्मा नित्य ही है" यह एकान्तवादी का । भगवान महावीर ने एकान्तवादी को अनाचार कहा है-इस जगत को अनादिअनन्त जान कर इसे एकान्त नित्य या अनित्य न माने । एकान्त, नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद-इन दोनों पक्षों से व्यवहार नहीं चल सकता ये दोनों पक्ष अनाचार हैं। यद्यपि 'स्यात्' शब्द के कथंचित्त, संशय और कदाचित तीनों अर्थ होते हैं पर स्याद्वाद में निर्दिष्ट स्यात् सिर्फ 'कथंचित्ते' का अर्थ लिये हुए है। वस्तुतः स्याद्वाद में विवक्षित अंश अनिश्चित नहीं रहता, वह अपनी अपेक्षा विशेष से बिल्कुल निश्चित रहता है। ___ अस्तु यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि अनेकान्त सिद्धान्त के प्रणेता भगवान महावीर समन्वय और सहअस्तित्व का दिव्य संदेश लेकर इस में संसार आये । वस्तु में अनेक आपेक्षित धर्म १.सूत्रकृतांग-१-४-१९. २.सूत्रकृतांग-२-५-१ हैं उन सबका यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब अपेक्षा को सामने रखा जाए । दर्शनशास्त्र में एक, अनेक, वाच्य, अवाच्य तथा लोकव्यवहार में स्वच्छ-मलिन, सुक्ष्म-स्थूल आदि अनेक ऐसे धर्म हैं जो आपेक्षिक हैं इनका भाषा के द्वारा कथन उसी सीमा तक सार्थक हो सकता है जहाँ तक हमारी अपेक्षा उसे अनप्राणित करती है । जिस समय जिस अपेक्षा से जो शब्द जिस वस्तु के लिये प्रयुक्त होता है उसी समय उसी वस्तु के लिए किसी अन्य अपेक्षा से अन्य शब्द की प्रयुक्ति भी तथ्यगत ही होगी, वह उतना ही अखण्ड सत्य होगा जितना कि पहला । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि एक ही वस्तु के संबन्ध में ऐसे अनेक तथ्य होते हैं जो हमारे ज्ञान में सन्निहित हैं और एक ही समय में सब समान रूप से सत्य हैं फिर भी वस्तु के पूर्ण रूप को अभिव्यक्ति में उसकी विभक्ति करनी ही होगी। बस्तु में जो अनेक आपेक्षिक धर्म हैं, उन सबका यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब अपेक्षा को सामने रखा जाए । वर्तमान समाज में पारस्परिक झगड़ों का एक मूल कारण यह भी रहा है कि दूसरों के सही दृष्टिकोण का अनादर करना। किसी वस्तु या पदार्थ में जो अपेक्षायें घटित होती हैं उनका स्वीकरण ही अनेकान्त का सिद्धांत है । एक अन्धे हाथी को लेकर छह अन्धे व्यक्तियों की तरह आग्रह दृष्टि छोड़े दूसरों के विचारों का भी समादर किया जाए। कभी-कभी गलत फहमियों से वर्तमान समाज की छोटी-छोटी घटनाएं विस्फोट का रूप धारण कर लेतो हैं । यदि अहिंसामय अनेकान्त सिद्धांत का अपलवन लेकर वर्तमान के सामाजिक झगड़े सुलझाये जायें तो आसानी से सुलझ सकते हैं। शशकशृंग या गगनपुष्प की अस्तित्व सिद्धि में अनेकान्त सापेक्ष नहीं है । अनेकांत तो केवल यथार्थता का प्रगटीकरण करता है, वस्तु का यथेष्ट परिवर्तन उसे अभीष्ट नहीं है । प्रत्येक वस्तु और पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा असत् है । इसे सहजतया समझा जा सकता है । वस्त्र स्वद्रव्य रूई की अपेक्षा सत् और परद्रव्य मिट्टी की अपेक्षा असत् है, क्योंकि वस्त्र, वस्त्र है मिट्टी नहीं । इसी प्रकार सत्-असत् के आपेक्षिक कथन के समान ही वस्तु में एक-अनेक, विधि-निषेध वाच्य-अवाच्य, आदि विभिन्न धर्मों की सत्ता विद्यमान है। __आज यह प्रायः देखा जाता है कि आत्मा की पकड़ की अपेक्षा शब्दों की अधिक पकड़ है। तत्वतः सत्य विशाल है और शब्द सीमित । सत्य की अभिव्यक्ति के लिये शब्द स्पष्ट होते हैं और उसको सीमित बना देते है। अनेकान्त दृष्टि की जगह, आग्रह सहित दृष्टि होने के कारण शास्त्र का कार्य नहीं कर पाते, प्रत्युत स्वयं समस्या बन जाते हैं। जो शास्त्र हमारी आंतरिकता से नहीं जुड़ पाते, वे बहुधा शस्त्र बन जाते हैं। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अनेकान्त का विवेचन करते हुए लिखा है कि प्रत्येक प्रमेय में इसे लगाने की आवश्यकता है। स्याद्वाद भाषा का वह निर्दोष प्रयोग है जिसके द्वारा अनेकान्त वस्तु के परिपूर्ण राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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